रविवार, 16 सितंबर 2012

मधुमक्खी पालन

मधुमक्खी पालन

मधुमक्खी पालन एक कृषि आधारित उद्यम है, जिसे किसान अतिरिक्त आय अर्जित करने के लिए अपना सकते हैं।
मधुमक्खियां फूलों के रस को शहद में बदल देती हैं और उन्हें अपने छत्तों में जमा करती हैं। जंगलों से मधु एकत्र करने की परंपरा लंबे समय से लुप्त हो रही है। बाजार में शहद और इसके उत्पादों की बढ़ती मांग के कारण मधुमक्खी पालन अब एक लाभदायक और आकर्षक उद्यम के रूप में स्थापित हो चला है। मधुमक्खी पालन के उत्पाद के रूप में शहद और मोम आर्थिक दृष्टि से महत्वपूर्ण हैं।
आय बढ़ाने की गतिविधि के रूप में मधुमक्खी पालन के लाभ
  • मधुमक्खी पालन में कम समय, क म लागत और कम ढांचागत पूंजी निवेश की जरूरत होती है,
  • कम उपजवाले खेत से भी शहद और मधुमक्खी के मोम का उत्पादन किया जा सकता है,
  • मधुमक्खियां खेती के किसी अन्य उद्यम से कोई ढांचागत प्रतिस्पर्द्धा नहीं करती हैं,
  • मधुमक्खी पालन का पर्यावरण पर भी सकारात्मक प्रभाव पड़ता है। मधुमक्खियां कई फूलवाले पौधों के परागण में महत्वपूर्ण भूमिका निभाती हैं। इस तरह वे सूर्यमुखी और विभिन्न फलों की उत्पादन मात्रा बढ़ाने में सहायक होती हैं,
  • शहद एक स्वादिष्ट और पोषक खाद्य पदार्थ है। शहद एकत्र करने के पारंपरिक तरीके में मधुमक्खियों के जंगली छत्ते नष्ट कर दिये जाते हैं। इसे मधुमक्खियों को बक्सों में रख कर और घर में शहद उत्पादन कर रोका जा सकता है,
  • मधुमक्खी पालन किसी एक व्यक्ति या समूह द्वारा शुरू किया जा सकता है,
  • बाजार में शहद और मोम की भारी मांग है।
उत्पादन प्रक्रिया
मधुमक्खियां खेत या घर में बक्सों में पाली जा सकती हैं।


छत्ता: यह एक साधारण लंबा बक्सा होता है, जिसे ऊपर से कई छड़ों से ढंका जाता है। बक्से का आकार 100 सेंटीमीटर लंबा, 45 सेंटीमीटर चौड़ा और 25 सेंटीमीटर ऊंचा होता है। बक्सा दो सेंटीमीटर मोटा होना चाहिए और उसके भीतर छत्ते को चिपका कर एक सेंटीमीटर के छेद का प्रवेश द्वार बनाया जाना चाहिए। ऊपर की छड़ बक्से की चौड़ाई के बराबर लंबी होनी चाहिए और उसे करीब 1.5 सेंटीमीटर मोटी होनी चाहिए। इतनी मोटी छड़ एक भारी छत्ते को टांगने के लिए पर्याप्त है। दो छड़ों के बीच  3.3 सेंटीमीटर की  खाली जगह होनी चाहिए, ताकि मधुमक्खियों को प्राकृतिक रूप में खाली जगह मिले और वे नया छत्ता बना सकें।
  • स्मोकर या धुआं फेंकनेवाला: यह दूसरा महत्वपूर्ण उपकरण है। इसे छोटे टिन से बनाया जा सकता है। हम धुआं फेंकनेवाले का उपयोग खुद को मधुमक्खियों के डंक से बचाने और उन पर नियंत्रण पाने के लिए करते हैं।
  • कपड़ा: काम के दौरान अपनी आंखों और नाक को मधुमक्खियों के डंक से बचाने के लिए।
  • छुरी: इसका इस्तेमाल उपरी छड़ों को ढीला करने और शहद की छड़ों को काटने के लिए किया जाता है।
  • पंख: मधुमक्खियों को छत्ते से हटाने के लिए।
  • रानी को छोड़नेवाला
  • माचिस की डिब्बी
2. मधुमक्खियों की प्रजातियां

भारत में मधुमक्खियों की चार प्रजातियां पायी जाती हैं। ये हैं:
  • पहाड़ी मधुमक्खी (एपिस डोरसाटा): ये अच्छी मात्रा में शहद एकत्र करनेवाली होती हैं। इनकी एक कॉलोनी से 50 से 80 किलो तक शहद मिलता है।
  • छोटी मधुमक्खी (एपिस फ्लोरिया): इनसे बहुत कम शहद मिलता है। एक कॉलोनी से मात्र 200 से 900 ग्राम शहद ही ये एकत्र करती हैं।
  • भारतीय मधुमक्खी (एपिस सेराना इंडिका): ये एक साल में एक कॉलोनी से औसतन छह से आठ किलो तक शहद देती हैं।
  • यूरोपियन मधुमक्खी (इटालियन मधुमक्खी)(एपिस मेल्लीफेरा): इनकी एक कॉलोनी से औसतन 25 से 40 किलो तक शहद मिलता है।
डंकहीन मधुमक्खी (ट्राइगोना इरीडीपेन्निस): उपरोक्त के अलावा केरल में एक और प्रजाति है, जिसे डंकहीन मधुमक्खी कहा जाता है। इनके डंक अल्पविकसित होते हैं। ये परागण की विशेषज्ञ होती हैं। ये हर साल 300 से 400 ग्राम शहद उत्पादित करती हैं।
Stingless bee (Trigona iridipennis): In addition to the above, another species is also present in Kerala known as stingless bees. They are not truly stingless, but sting is poorly developed. They are efficient pollinators. They yield 300-400 g of honey per year.

  • 3
  • कीस्थापना

    • सभी बक्से खुली और सूखी जगहों पर होने चाहिए। यदि यह स्थान किसी बगीचे के आसपास हो तो और भी अच्छा होगा। बगीचे में पराग, रस और पानी का पर्याप्त स्रोत हो।
    • छत्तों का तापमान उपयुक्त बनाये रखने के लिए इन्हें सूर्य की किरणों से बचाया जाना जरूरी होता है।
    • छत्तों के आसपास चींटियों के लिए कुआं होना चाहिए। कॉलोनियों का रुख पूर्व की ओर हो और बारिश और सूर्य से बचाने के लिए इसकी दिशा में थोड़ा बहुत बदलाव किया जा सकता है।
    • कॉलोनियों को मवेशियों, अन्य जानवरों, व्यस्त सड़कों और सड़क पर लगी लाइटों से दूर रखें।
    4. मधुमक्खियों की कॉलोनी की स्थापना

    • मधुमक्खी कॉलोनी की स्थापना के लिए मधुमक्खी किसी जंगली छत्तों की कॉलोनी से लेकर उसे छत्ते में स्थानांतरित किया जा सकता है या फिर उधर से गुजरनेवाली मधुमक्खियों के झुंड को आकर्षित किया जा सकता है।
    • किसी तैयार छत्ते में मधुमक्खियों के झुंड को आकर्षित करने या स्थानांतरित करने से पहले उस बक्से में परिचित सुगंध देना लाभदायक होता है। इसके लिए बक्से के भीतर छत्तों के टुकड़ों को रगड़ दें या थोड़ा सा मोम लगा दें। यदि संभव हो, तो किसी प्राकृतिक ठिकाने से रानी मक्खी को पकड़ लें और उसे अपने छत्ते में रख दें, ताकि दूसरी मधुमक्खियां वहां आकर्षित हों।
    • छत्ते में जमा की गयी मधुमक्खियों को कुछ सप्ताह के लिए भोजन करायें। इसके लिए आधा कप चीनी को आधा कप गरम पानी में अच्छी तरह घोल लें और उसे बक्से में रख दें। इससे छड़ के साथ तेजी से छत्ता बनाने में भी मदद मिलेगी।
    • बक्से में भीड़ करने से बचें।
  • 5.

    • मधुमक्खी के छत्तों का शहद टपकने के मौसम में, खासकर सुबह के समय सप्ताह में कम से कम एक बार निरीक्षण करें।
    • निम्नलिखित क्रम में बक्सों की सफाई करें, छत, ऊपरी सतह, छत्तों की जगह और सतह।
    • कॉलोनियों पर नियमित निगाह रखें और देखते रहें कि स्वस्थ रानी, छत्ते का विकास, शहद का भंडारण, पराग कण की मौजूदगी, रानी का घर और मधुमक्खियों की संख्या तथा छत्तों के कोष्ठों का विकास हो रहा है।
    • इनमें से मधुमक्खियों के किसी एक दुश्मन के संक्रमण की भी नियमित जांच करें-
    • मोम का कीड़ा (गैल्लेरिया मेल्लोनेल्ला): इसके लार्वा और सिल्कनुमा कीड़ों को छत्ते से, बक्सों के कोनों से और छत से साफ कर दें।
    • मोम छेदक (प्लैटिबोलियम एसपी): वयस्क छेदकों को एकत्र कर नष्ट कर दें।
    • दीमक: फ्रेम और सतह को रुई से साफ करें। रुई को पोटाशियम परमैंगनेट के घोल में डुबायें। जब तक दीमक खत्म न हो जाये, सतह को पोछते रहें।
    • नरम मौसम में प्रबंधन
    • छड़ों को हटा दें और उपलब्ध स्वस्थ मधुमक्खियों को अच्छी तरह से कोष्ठकों में रखें।
    • यदि संभव हो, तो विभाजक दीवार लगा दें।
    • यदि पता चल जाये, तो रानी के घर और शिशुओं के घर को नष्ट कर दें।
    • भारतीय मधुमक्खियों के लिए प्रति सप्ताह 200 ग्राम चीनी का घोल (एक-एक के अनुपात में) दें।
    • पूरी कॉलोनी को एक ही समय में भोजन दें, ताकि लूटपाट न हो।
    • शहद एकत्र करने के मौसम में प्रबंधन
    • शहद एकत्र करने का मौसम शुरू होने से पहले कॉलोनी में मधुमक्खियों की संख्या पर्याप्त बढ़ा लें।
    • पहले छत्ते और नये कोष्ठों के बीच पर्याप्त जगह दें, ताकि रानी मधुमक्खी अपने कोष्ठ में रह सके।
    • रानी मधुमक्खी को उसके कोष्ठ में बंद करने के लिए रानी को अलग करनेवाली दीवार लगा दें।
    • कॉलोनी का सप्ताह में एक बार निरीक्षण करें और बक्से के किनारे शहद से भरे छत्तों को तत्काल हटा दें। इससे बक्सा हल्का होता रहेगा और तीन-चौथाई भरे हुए शहद के बरतन को समय-समय पर खाली करना जगह भी बचायेगा।
    • जिस छत्ते को पूरी तरह बंद कर दिया गया हो या शहद निकालने के लिए बाहर निकाला गया हो, उसे बाद में वापस पुराने स्थान पर लगा दिया जाना चाहिए।
    6. शहद एकत्र करना
     
    • मधुमक्खियों को धुआं दिखा कर अलग कर दें और सावधानी से छत्तों को छड़ से अलग करें।
    • शहद को अमूमन अक्तूबर-नवंबर और फरवरी-जून के बीच ही एकत्र किया जाना चाहिए, क्योंकि इस मौसम में फूल ज्यादा खिलते हैं।
    • पूरी तरह भरा हुआ छत्ता हल्के रंग का होता है। इसके दोनों ओर के आधे से अधिक कोष्ठ मोम से बंद होते हैं।
     

    रीक टोकरी का छत्ता

    ग्रीक टोकरी का छत्ता एक पारम्परिक तकनीक है। यह अब भी प्रासंगिक है, क्योंकि इसे बनाने के लिए स्थानीय सामग्री तथा स्थानीय कौशल की आवश्यकता होती है।
    बनावट
    • टोकरी ऊपरी छोर से चौड़ी तथा तले से संकरी होती है।
    • ऊपरी भाग 1.25 इंच चौड़े समानांतर लकड़ी की छड़ों से ढंका होता है, जो पास-पास इस तरह से रखे होते हैं कि मधुमक्खी रोधी कवर बन जाए। लम्बाई की दिशा में प्रत्येक छड़ उत्तल होती है (निचली सतह पर) तथा लगभग एक इंच की दूरी होती है। उत्तलता छड़ के मध्य में आना चाहिए। दोनों सिरों को 2-3 इंच तक चपटा रखा जाना चाहिए ताकि जहां से छड़ें, जो टोकरी की परिधि से लम्बी होती हैं तथा टोकरी के मुंह पर टिकी होती हैं, वहां से मधुमक्खियां निकल न पाएं। (चित्र 1 देखिए)  
    • लम्बाई के सहारे, प्रत्येक छड़ के मध्य में, नीचे की ओर पिघले हुए मधुमक्खी के मोम के साथ एक पतला कंघा लगाया जाता है ताकि सीधे कंघी बनाए जा सकें।
    • अन्दर तथा बाहर से टोकरी को दो भाग गोबर तथा एक भाग मिट्टी के मिश्रण से लीपा जाता है। (चित्र 2)। जब पलस्तर सूख जाता है, तो छड़ों को टोकरी के ऊपर रख दिया जाता है जिसे धूप तथा बारिश से बचाने के लिए इसके बाद फूस से बने शंकु के आकार के हैट से ढंका जाता है।  (चित्र 3 देखें)।                             
    • छत्ते के लिए आगमन बिन्दु तले से कम से कम 3 इंच ऊपर होना ज़रूरी है ताकि यदि कंघी गिर जाता है तो आगमन के मार्ग में रुकावट न हो। (चित्र 4 देखें)
    • जब शहद पक्का हो जाए तथा उसका बहाव पूरा हो जाए, तो कंघी छड़ों से काट दिए जाते हैं लेकिन कंघी की एक पतली छोटी पट्टी, पाव इंच से अधिक नहीं, मधुमक्खियों को सीधे, नए कंघी फिर से बनाने के लिए, छोड़ दी जाती है।

    बकरी पालन

    बकरी पालन प्रायः सभी जलवायु में कम लागत, साधारण आवास, सामान्य रख-रखाव तथा पालन-पोषण के साथ संभव है। इसके उत्पाद की बिक्री हेतु बाजार सर्वत्र उपलब्ध है। इन्हीं कारणों से पशुधन में बकरी का एक विशेष स्थान है।
    उपरोक्त गुणों के आधार पर राष्ट्रपिता महात्मा गाँधी बकरी को ‘गरीब की गाय’ कहा करते थे। आज के परिवेश में भी यह कथन महत्वपूर्ण है। आज जब एक ओर पशुओं के चारे-दाने एवं दवाई महँगी होने से पशुपालन आर्थिक दृष्टि से कम लाभकारी हो रहा है वहीं बकरी पालन कम लागत एवं सामान्य देख-रेख में गरीब किसानों एवं खेतिहर मजदूरों के जीविकोपार्जन का एक साधन बन रहा है। इतना ही नहीं इससे होने वाली आय समाज के आर्थिक रूप से सम्पन्न लोगों को भी अपनी ओर आकर्षित कर रहा है। बकरी पालन स्वरोजगार का एक प्रबल साधन बन रहा है।
    बकरी पालन की उपयोगिताः  बकरी पालन मुख्य रूप से मांस, दूध एवं रोंआ (पसमीना एवं मोहेर) के लिए किया जा सकता है। झारखंड राज्य के लिए बकरी पालन मुख्य रूप से मांस उत्पादन हेतु एक अच्छा व्यवसाय का रूप ले सकती है। इस क्षेत्र में पायी जाने वाली बकरियाँ अल्प आयु में वयस्क होकर दो वर्ष में कम से कम 3 बार बच्चों को जन्म देती हैं और एक वियान में 2-3 बच्चों को जन्म देती हैं। बकरियों से मांस, दूध, खाल एवं रोंआ के अतिरिक्त इसके मल-मूत्र से जमीन की उर्वरा शक्ति बढ़ती है। बकरियाँ प्रायः चारागाह पर निर्भर रहती हैं। यह झाड़ियाँ, जंगली घास तथा पेड़ के पत्तों को खाकर हमलोगों के लिए पौष्टिक पदार्थ जैसे मांस एवं दूध उत्पादित करती हैं।

    बकरियों की विभिन्न उपयोगी नस्लें :   संसार में बकरियों की कुल 102 प्रजातियाँ उपलब्ध है। जिसमें से 20 भारतवर्ष में है। अपने देश में पायी जाने वाली विभिन्न नस्लें मुख्य रूप से मांस उत्पादन हेतु उपयुक्त है। यहाँ की बकरियाँ पश्चिमी देशों में पायी जाने वाली बकरियों की तुलना में कम मांस एवं दूध उत्पादित करती है क्योंकि वैज्ञानिक विधि से इसके पैत्रिकी विकास, पोषण एवं बीमारियों से बचाव पर समुचित ध्यान नहीं दिया गया है। बकरियों का पैत्रिकी विकास प्राकृतिक चुनाव एवं पैत्रिकी पृथकता से ही संभव हो पाया है। पिछले 25-30 वर्षों में बकरी पालन के विभिन्न पहलुओं पर काफी लाभकारी अनुसंधान हुए हैं फिर भी राष्ट्रीय एवं क्षेत्रीय स्तर पर गहन शोध की आवश्यकता है। भारतीय कृषि अनुसंधान संस्थान, नई दिल्ली की ओर से भारत की विभिन्न जलवायु की उन्नत नस्लें जैसेः ब्लैक बंगला, बारबरी, जमनापारी, सिरोही, मारबारी, मालावारी, गंजम आदि के संरक्षण एवं विकास से संबंधित योजनाएँ चलायी जा रही है। इन कार्यक्रमों के विस्तार की आवश्यकता है ताकि विभिन्न जलवायु एवं परिवेश में पायी जाने वाली अन्य उपयोगी नस्लों की विशेषता एवं उत्पादकता का समुचित जानकारी हो सके। इन जानकारियों के आधार पर ही क्षेत्र विशेष के लिए बकरियों से होने वाली आय में वृद्धि हेतु योजनाएँ सुचारू रूप से चलायी जा सकती है।
    देशी बकरियों की उपयोगी नस्लें


    भारत की उपयोगी नस्लें निम्नलिखित हैं :-
    01.       ब्लैक बंगाल                   02.       जमनापारी
    03.       बारबरी                        04.      बीटल
    05.       सिरोही                        06.       मारबारी
    07.       मालावारी                     08.       संगमनेरी
    09.       जाकराना                     10.       कश्मीरी
    11.       गंजम                         12.       कच्छी
    13.       चेगु                            14.       गद्दी
    ब्लैक बंगालः इस जाति की बकरियाँ पश्चिम बंगाल, झारखंड, असोम, उत्तरी उड़ीसा एवं बंगाल में पायी जाती है। इसके शरीर पर काला, भूरा तथा सफेद रंग का छोटा रोंआ पाया जाता है। अधिकांश (करीब 80 प्रतिशत) बकरियों में काला रोंआ होता है। यह छोटे कद की होती है वयस्क नर का वजन करीब 18-20 किलो ग्राम होता है जबकि मादा का वजन 15-18 किलो ग्राम होता है। नर तथा मादा दोनों में 3-4 इंच का आगे की ओर सीधा निकला हुआ सींग पाया जाता है। इसका शरीर गठीला होने के साथ-साथ आगे से पीछे की ओर ज्यादा चौड़ा तथा बीच में अधिक मोटा होता है। इसका कान छोटा, खड़ा एवं आगे की ओर निकला रहता है।
    इस नस्ल की प्रजनन क्षमता काफी अच्छी है। औसतन यह 2 वर्ष में 3 बार बच्चा देती है एवं एक वियान में 2-3 बच्चों को जन्म देती है। कुछ बकरियाँ एक वर्ष में दो बार बच्चे पैदा करती है तथा एक बार में 4-4 बच्चे देती है। इस नस्ल की मेमना 8-10 माह की उम्र में वयस्कता प्राप्त कर लेती है तथा औसतन 15-16 माह की उम्र में प्रथम बार बच्चे पैदा करती है। प्रजनन क्षमता काफी अच्छी होने के कारण इसकी आबादी में वृद्धि दर अन्य नस्लों की तुलना में अधिक है। इस जाति के नर बच्चा का मांस काफी स्वादिष्ट होता है तथा खाल भी उत्तम कोटि का होता है। इन्हीं कारणों से ब्लैक बंगाल नस्ल की बकरियाँ मांस उत्पादन हेतु बहुत उपयोगी है। परन्तु इस जाति की बकरियाँ अल्प मात्रा (15-20 किलो ग्राम/वियान) में दूध उत्पादित करती है जो इसके बच्चों के लिए अपर्याप्त है। इसके बच्चों का जन्म के समय औसत् वजन 1.0-1.2 किलो ग्राम ही होता है। शारीरिक वजन एवं दूध उत्पादन क्षमता कम होने के कारण इस नस्ल की बकरियों से बकरी पालकों को सीमित लाभ ही प्राप्त होता है।
    जमुनापारीः जमुनापारी भारत में पायी जाने वाली अन्य नस्लों की तुलना में सबसे उँची तथा लम्बी होती है। यह उत्तर प्रदेश के इटावा जिला एवं गंगा, यमुना तथा चम्बल नदियों से घिरे क्षेत्र में पायी जाती है। एंग्लोनुवियन बकरियों के विकास में जमुनापारी नस्ल का विशेष योगदान रहा है।
    इसके नाक काफी उभरे रहते हैं। जिसे ‘रोमन’ नाक कहते हैं। सींग छोटा एवं चौड़ा होता है। कान 10-12 इंच लम्बा चौड़ा मुड़ा हुआ तथा लटकता रहता है। इसके जाँघ में पीछे की ओर काफी लम्बे घने बाल रहते हैं। इसके शरीर पर सफेद एवं लाल रंग के लम्बे बाल पाये जाते हैं। इसका शरीर बेलनाकार होता है। वयस्क नर का औसत वजन 70-90 किलो ग्राम तथा मादा का वजन 50-60 किलो ग्राम होता है।
    इसके बच्चों का जन्म समय औसत वजन 2.5-3.0 किलो ग्राम होता है। इस नस्ल की बकरियाँ अपने गृह क्षेत्र में औसतन 1.5 से 2.0 किलो ग्राम दूध प्रतिदिन देती है। इस नस्ल की बकरियाँ दूध तथा मांस उत्पादन हेतु उपयुक्त है। बकरियाँ सलाना बच्चों को जन्म देती है तथा एक बार में करीब 90 प्रतिशत एक ही बच्चा उत्पन्न करती है। इस जाति की बकरियाँ मुख्य रूप से झाड़ियाँ एवं वृक्ष के पत्तों पर निर्भर रहती है। जमुनापारी नस्ल के बकरों का प्रयोग अपने देश के विभिन्न जलवायु में पायी जाने वाली अन्य छोटे तथा मध्यम आकार की बकरियाँ के नस्ल सुधार हेतु किया गया। वैज्ञानिक अनुसंधान से यह पता चला कि जमनापारी सभी जलवायु के लिए उपयुक्त नही हैं।

    बीटलः  बीटल नस्ल की बकरियाँ मुख्य रूप से पंजाब प्रांत के गुरदासपुर जिला के बटाला अनुमंडल में पाया जाता है। पंजाब से लगे पाकिस्तान के क्षेत्रों में भी इस नस्ल की बकरियाँ उपलब्ध है। इसका शरीर भूरे रंग पर सफेद-सफेद धब्बा या काले रंग पर सफेद-सफेद धब्बा लिये होता है। यह देखने में जमनापारी बकरियाँ जैसी लगती है परन्तु ऊँचाई एवं वजन की तुलना में जमुनापारी से छोटी होती है। इसका कान लम्बा, चौड़ा तथा लटकता हुआ होता है। नाक उभरा रहता है। कान की लम्बाई एवं नाक का उभरापन जमुनापारी की तुलना में कम होता है। सींग बाहर एवं पीछे की ओर घुमा रहता है। वयस्क नर का वजन 55-65 किलो ग्राम तथा मादा का वजन 45-55 किलो ग्राम होता है। इसके वच्चों का जन्म के समय वजन 2.5-3.0 किलो ग्राम होता है। इसका शरीर गठीला होता है। जाँघ के पिछले भाग में कम घना बाल रहता है। इस नस्ल की बकरियाँ औसतन 1.25-2.0 किलो ग्राम दूध प्रतिदिन देती है। इस नस्ल की बकरियाँ सलाना बच्चे पैदा करती है एवं एक बार में करीब 60% बकरियाँ एक ही बच्चा देती है।
    बीटल नस्ल के बकरों का प्रयोग अन्य छोटे तथा मध्यम आकार के बकरियों के नस्ल सुधार हेतु किया जाता है। बीटल प्रायः सभी जलवायु हेतु उपयुक्त पाया गया है।
    बारबरीः बारबरी मुख्य रूप से मध्य एवं पश्चिमी अफ्रीका में पायी जाती है। इस नस्ल के नर तथा मादा को पादरियों के द्वारा भारत वर्ष में सर्वप्रथम लाया गया। अब यह उत्तर प्रदेश के आगरा, मथुरा एवं इससे लगे क्षेत्रों में काफी संख्या में उपलब्ध है।
    यह छोटे कद की होती है परन्तु इसका शरीर काफी गठीला होता है। शरीर पर छोटे-छोटे बाल पाये जाते हैं। शरीर पर सफेद के साथ भूरा या काला धब्बा पाया जाता है। यह देखने में हिरण के जैसा लगती है। कान बहुत ही छोटा होता है। थन अच्छा विकसित होता है। वयस्क नर का औसत वजन 35-40 किलो ग्राम तथा मादा का वजन 25-30 किलो ग्राम होता है। यह घर में बांध कर गाय की तरह रखी जा सकती है। इसकी प्रजनन क्षमता भी काफी विकसित है। 2 वर्ष में तीन बार बच्चों को जन्म देती है तथा एक वियान में औसतन 1.5 बच्चों को जन्म देती है। इसका बच्चा करीब 8-10 माह की उम्र में वयस्क होता है। इस नस्ल की बकरियाँ मांस तथा दूध उत्पादन हेतु उपयुक्त है। बकरियाँ औसतन 1.0 किलो ग्राम दूध प्रतिदिन देती है।
    सिरोहीः सिरोही नस्ल की बकरियाँ मुख्य रूप से राजस्थान के सिरोही जिला में पायी जाती है। यह गुजरात एवं राजस्थान के सीमावर्ती क्षेत्रों में भी उपलब्ध है। इस नस्ल की बकरियाँ दूध उत्पादन हेतु पाली जाती है लेकिन मांस उत्पादन के लिए भी यह उपयुक्त है। इसका शरीर गठीला एवं रंग सफेद, भूरा या सफेद एवं भूरा का मिश्रण लिये होता है। इसका नाक छोटा परन्तु उभरा रहता है। कान लम्बा होता है। पूंछ मुड़ा हुआ एवं पूंछ का बाल मोटा तथा खड़ा होता है। इसके शरीर का बाल मोटा एवं छोटा होता है। यह सलाना एक वियान में औसतन 1.5 बच्चे उत्पन्न करती है। इस नस्ल की बकरियों को बिना चराये भी पाला जा सकता है।
    झारखंड प्रांत की जलवायु में उपरोक्त वर्णित नस्लों का पालन किया जा सकता है या यहाँ पायी जाने वाली बकरियों के नस्ल सुधार हेतु बीटल, बारबरी, सिरोही एवं जमनापारी के बकरे व्यवहार में लाये जा सकते हैं।
    विदेशी बकरियों की प्रमुख नस्लें :
    अल्पाइन - यह स्विटजरलैंड की है। यह मुख्य रूप से दूध उत्पादन के लिए उपयुक्त है। इस नस्ल की बकरियाँ अपने गृह क्षेत्रों में औसतन 3-4 किलो ग्राम दूध प्रतिदिन देती है।
    एंग्लोनुवियन - यह प्रायः यूरोप के विभिन्न देशों में पायी जाती है। यह मांस तथा दूध दोनों के लिए उपयुक्त है। इसकी दूध उत्पादन क्षमता 2-3 किलो ग्राम प्रतिदिन है।
    सानन - यह स्विटजरलैंड की बकरी है। इसकी दूध उत्पादन क्षमता अन्य सभी नस्लों से अधिक है। यह औसतन 3-4 किलो ग्राम दूध प्रतिदिन अपने गृह क्षेत्रों में देती है।
    टोगेनवर्ग - टोगेनवर्ग भी स्विटजरलैंड की बकरी है। इसके नर तथा मादा में सींग नहीं होता है। यह औसतन 3 किलो ग्राम दूध प्रतिदिन देती है। 
    झारखंड राज्य के लिए संकर नस्ल के बकरी पालन व उसकी उपयोगिता
    किन्हीं दो जातियों के बकरा तथा बकरी के संयोग से उत्पन्न बकरी को संकर बकरी कहते हैं। झारखंड में राज्य के पशुपालन विभाग तथा अन्य संस्थाओं द्वारा बकरी के नस्ल सुधार हेतु किसानों के बीच काफी संख्या में जमुनापारी बकरों का वितरण किया गया जिसका वांछित लाभ नहीं हो पाया। इसका मुख्य कारण जमुनापारी नस्ल के विषय में समुचित ज्ञान का अभाव था।
    बिरसा कृषि विश्वविद्यालय के अन्तर्गत राँची पशुचिकित्सा महाविद्यालय के वैज्ञानिकों द्वारा इस क्षेत्र में पायी जाने वाली ब्लैक बंगाल बकरी का प्रजनन जमुनापारी तथा बीटल बकरों से कराकर काफी संख्या में संकर नस्ल के बकरी, प्रक्षेत्र तथा बकरी पालकों के यहाँ उत्पन्न किया गया। बकरी के विभिन्न आर्थिक पहलुओं पर गहन अध्ययन से पता चला कि मांस तथा दूध उत्पादन में वृद्धि के लिए बीटल नस्ल उपयुक्त है। अतः ब्लैक बंगाल बकरी का प्रजनन बीटल बकरा से कराकर इस क्षेत्र के लिए उपयुक्त संकर नस्ल की बकरी का उत्पादन किया जा सकता है। यह संकर नस्ल की बकरी, बिहार की (झारखंड के अतिरिक्त) के लिए भी उपयुक्त है।
    बीटल नस्ल के संयोग से उत्पादित संकर नस्ल के नर का वजन छः माह की उम्र में औसतन 12-15 किलो ग्राम हो जाता है। जबकि देशी (ब्लैक बंगाल) के नर का वजन केवल 7-8 किलो ग्राम रहता है। इस प्रकार बकरी पालन से होने वाली आय में डेढ़ से दोगुणी वृद्धि संभव है। संकर बकरियों के दूध उत्पादन में देशी की तुलना में करीब तिगुनी वृद्धि होती है। राँची पशुचिकत्सा महाविद्यालय के आस-पास के गाँवों में करीब 90 प्रतिशत बकरियाँ संकर नस्ल की उपलब्ध है।  
    बकरी प्रजनन - इस क्षेत्र में पायी जानेवाली ब्लैक बंगाल नस्ल के मादा बच्चे करीब 8-10 माह की उम्र में वयस्क हो जाते हैं। अगर शारीरिक वजन ठीक हो तो मादा मेमना (पाठी) को 8-10 माह की उम्र में पाल दिलाना चाहिए अन्यथा 12 महीने की उम्र में पाठी में ऋतुचक्र एवं ऋतुकाल छोटा होता है। वैसे बकरी में ऋतुचक्र करीब 18-20 दिनों का होता है एवं ऋतुकाल 36 घंटों का। बकरियाँ सालों भर गर्म होती है लेकिन अधिकांश बकरियाँ मध्य सितम्बर से मध्य अक्तूबर तथा मध्य मई से मध्य जून के बीच गर्म होती है। अन्य समय में कम बकरियाँ गर्म होती है। ऋतुकाल शुरू होने के 10-12 तथा 24-26 घंटों के बीच 2 बार पाल दिलाने से गर्भ ठहरने की संभावना 90 प्रतिशत से अधिक रहती है। इसे आप इस प्रकार समझ सकते है कि अगर बकरी या पाठी सुबह में गर्म हुई हो तब उसे उसी दीन शाम में एवं दूसरे दिन सुबह में पाल दिलाएं। अगर शाम को गर्म हुई हो  तो दूसरे दिन सुबह में पाल दिलावें।
    बकरी पालकों को बकरी के ऋतुकाल (गर्म होने) के लक्षण के विषय में जानकारी रखना चाहिए। बकरी के गर्म होने के लक्षण निम्नलिखित हैं : -
    • विशेष प्रकार की आवाज निकालना।
    • लगातार पूंछ हिलाना।
    • चरने के समय इधर-उधर भागना।
    • नर के नजदीक जाकर पूंछ हिलाना तथा विशेष प्रकार का आवाज निकालना।
    • घबरायी हुई सी रहना।
    • दूध उत्पादन में कमी
    • भगोष्ठ में सूजन और योनि द्वार का लाल होना
    • योनि से साफ पतला लेसेदार द्रव्य निकलना तथा नर का मादा के उपर चढ़ना या मादा का नर के उपर चढ़ना।
    उपरोक्त लक्षणों को पहचानकर बकरी पालक समझ सकते है कि उनकी बकरी गर्म हुई है अथवा नहीं। इन लक्षणों को जानने पर ही समय से गर्म बकरी को पाल दिलाया जा सकता है। बच्चा पैदा करने के 30-31 दिनों के बाद ही गर्म होने पर बकरी को पाल दिलावें।
    सामान्यतया 30-40 बकरियों के लिए एक बकरा काफी है। एक बकरा से एक दिन में केवल एक ही बकरी को पाल दिलाना चाहिए एवं एक सप्ताह में अधिक से अधिक पांच बकरियों को। इस बीच बकरों को अधिक पौष्टिक भोजन देना जरूरी है नहीं तो बकरा कमजोर हो जायेगा।
    ब्लैक बंगाल बकरी का प्रजनन बीटल या सिरोही बकरा तथा संकर पाठी या बकरी का प्रजनन संकर बकरा से ही करावें। एक बात ध्यान देने योग्य है कि नर और मादा के बीच बाप-बेटी, बेटा-माँ एवं भाई-बहन का संबंध न हो। अगर दो गाँवों (‘अ’ और ‘ब’) में बीटल या विराही बकरा उपलब्ध कराया गया है तथा इससे संकर बकरी-बकरा का उत्पादन हुआ है तब 8-10 माह के बाद संकर पाठा-पाठी प्रजनन योग्य हो जायेगा। अगर इन दोनों गाँवों के बकरों तथा प्रजनन हेतु संकर पाठा का आपस में अदला-बदली नहीं किया जाय तब भाई-बहन, बाप-बेटी, बेटा-माँ के बीच प्रजनन होगा। अतः बकरा उपलब्ध कराने के 14-16 माह के बीच ‘अ’ गाँव के बकरा को ‘ब’ गाँव में तथा ‘ब’ गाँव के बकरा को ‘अ’ गाँव में अदला-बदला कर देना चाहिए। इसी प्रकार प्रजनन योग्य संकर पाठी का भी अदला-बदला करना चाहिए। संकर पाठी का प्रजनन संकर पाठा से ही कराना लाभप्रद है।
    प्रजनन हेतु नर का चयन
    • प्रजनन हेतु नर का चयन निम्नलिखित गुणों के आधार पर करें-
    • जुड़वा उत्पन्न नर का चुनाव करें।
    • नर के माँ का दूध उत्पादन पर ध्यान दें।
    • नर के शारीरिक वजन एवं बनावट पर ध्यान दें।
    • नर के अंडकोश की वृद्धि पर ध्यान देना चाहिए।

    गर्भवती बकरी की देख-रेख-


    गर्भवती बकरियों को गर्भावस्था के अंतिम डेढ़ महीने में अधिक सुपाच्य एवं पौष्टिक भोजन की आवश्यकता होती है क्योंकि इसके पेट में पल रहे भ्रूण का विकास काफी तेजी से होने लगता है। इस समय गर्भवती बकरी के पोषण एवं रख-रखाव पर ध्यान देने से स्वस्थ्य बच्चा पैदा होगा एवं बकरी अधिक मात्रा में दूध देगी जिससे इनके बच्चों में शारीरिक विकास अच्छा होगी।
    बकरियों में गर्भावस्था औसतन 142-148 दिनों का होता है। बच्चा देने के 2-3 दिन पहले से बकरी को साफा-सुथरा एवं अन्य बकरी से अलग रखें।
    आवास - वातावरण के अनुसार बकरियों के लिए आवास की व्यवस्था करनी चाहिए। यहाँ बकरियों को गर्मी, सर्दी, वर्षा तथा जंगली जानवरों से बचाने योग्य आवास की जरूरत है। आवास के लिए सस्ती से सस्ती सामग्री का व्यवहार करना चाहिए ताकि आवास लागत कम रहे। प्रत्येक वयस्क बकरी के परिवार के लिए 10-12 वर्गफीट जमीन की आवश्यकता होती है। प्रत्येक 10 बकरियों के परिवार के लिये 100-120 वर्ग फीट यानि 10'x12' जमीन की आवश्यकता होगी। बकरा-बकरी को अलग-अलग रखना चाहिए। बकरी के लिए घर के किनारे-किनारे डेढ़ फीट ऊँचा तथा ढ़ाई से तीन फीट चौड़ा मचान बना देना चाहिए। मचान बनाने में यह ध्यान रखना चाहिए कि दो लकड़ी या बांस के टुकड़ों के बीच इतना कम जगह हो कि बकरी या बकरी के बच्चों का पांव उसमें न फंस सके।
    अगर सम्भव हो तो घर की दीवाल से सटाकर बकरी गृह का निर्माण करें या किसी चहारदीवारी से। इस प्रकार लागत कम आयेगा। पीछे वाले दीवाल की ऊँचाई 8 फीट तथा आगे वाले का 6 फीट रखें। घर हवादार एवं साफ-सुथरा रहना चाहिए। जमीन मिट्टी एवं बालू से बना होना चाहिए। घर का सतह (जमीन) ढ़ालुआं होना चाहिए ताकि सफाई आसान हो। बकरियों खासकर बच्चों को ठंढ से बचाने का प्रबंध आवास में होना जरूरी है।
    पोषण - बकरियाँ चरने के अतिरिक्त हरे पेड़ की पत्तियाँ, हरी घास, दाल चुन्नी, चोकर आदि पसन्द करती है। बकरियों को रोज 6-8 घंटा चराना जरूरी है। यदि बकरी को घर में बांध कर रखना पड़े तब इसे कम से कम दो बार भोजन दें। बकरी हरा चारा (लूसर्न, बरसीम, जई, मकई, नेपियर आदि) और पत्ता (बबूल, बेर, बकाइन, पीपल, बरगद, गुलर कटहल आदि) भी खाती है। एक वयस्क बकरी को औसतन एक किलो ग्राम घास या पत्ता तथा 100-250 ग्राम दाना का मिश्रण (मकई दरों, चोकर, खल्ली, नमक मिलाकर) दिया जा सकता है। उम्र तथा वजन के अनुसार भोजन की मात्रा को बढ़ाया या घटाया जा सकता है। गाय-भैंस की तरह भी कृट्टी/भूसा में दाना का मिश्रण पानी में मिलाकर बकरी को दे सकते है। आदत लग जाने पर बकरियाँ भी गाय-भैंस की तरह खाना खा सकती है। बकरा, दूध देने वाली बकरी एवं गर्भवती बकरी के पोषण पर ज्यादा ध्यान देने की जरूरत होती है।
    बकरियों के लिए उपयोगी चारा
    झाड़ियाँ                  : बेर, झरबेर
    पेड़ की पत्तियाँ           : नीम, कटहल, पीपल, बरगद, जामुन, आम, बकेन, गुल्लड, शीशम
    चारा वृक्ष की पत्तियाँ    : सू-बबूल, सेसबेनिया
    सदाबहार घास          : दूब, दीनानाथ, गिनी घास
    हरा घास                 : लोबिया, बरसीम, लूसर्न आदि।

    मांस उत्पादन हेतु बकरी पालन-
    बाजार में मांस की मांग दिन-प्रतिदिन बढ़ रही है। जिसके कारण बकरियों की मूल्यों में भी काफी वृद्धि हुई है। ब्लैक बंगाल मांस उत्पादन हेतु उपयुक्त है। इसका प्रजनन बीटल या सिरोही नस्ल के बकरों से कराकर अधिक लाभ ले सकते है क्योंकि इससे उत्पन्न नर बच्चे छः माह की उम्र में औसतन 14-15 किलो ग्राम वजन प्राप्त कर लेता है। मांस उत्पादन वजन का 50 प्रतिशत मानकर चलें तब एक पाठा से 7-7.5 किलोग्राम मांस मिलेगा। जिसका बाजार भाव (100 रुपये/ किलो ग्राम) 700 रुपये से 750 रुपये तक आयेगा। इसके अतिरिक्त खाल, सिर, खूड़, आँत आदि से भी लाभ प्राप्त होता है।  
    अधिक वजन के लिए नर बच्चों का बंध्याकरण 2 माह की उम्र में कराना चाहिए तथा 15 किलोग्राम वजन प्राप्त कर लेने के बाद माँस हेतु उपयोग में लाना चाहिए। इस वजन को प्राप्त कर लेने पर, वजन की तुलना में माँस उत्पादन में वृद्धि होती है।

    बकरियों में होने वाले रोग, रोग के लक्षण एवं रोकथाम
    अन्य पशुओं की तरह बकरियाँ भी बीमार पड़ती है। बीमार पड़ने पर उसकी मृत्यु भी हो सकती है। बकरियों में मृत्यु दर कम कर बकरी पालन से होने वाली आय में वृद्धि की जा सकती है। बीमारी की अवस्था में पशुचिकित्सक की राय लेनी चाहिए।
    बकरियों में होने वाले रोग
    (क) परजीवी रोग - बकरी में परजीवी से उत्पन्न रोग अधिक होते है। परजीवी रोग से काफी क्षति पहुँचती है।
    बकरी को आंतरिक परजीवी से अधिक हानि पहुँचती है। इसमें गोल कृमि, फीता कृमि, फ्लूक, एमफिस्टोम और प्रोटोजोआ प्रमुख है। इसके प्रकोप के कारण उत्पादन में कमी, वजन कम होना, दस्त लगना, शरीर में खून की कमी होती है। शरीर का बाल तथा चमड़ा रूखा-रूखा दीखता है। इसके कारण पेट भी फूल सकता है तथा जबड़े के नीचे हल्की सूजन भी हो सकती है।
    इसके आक्रमण से बचाव तथा उपचार के लिए नियमित रूप से बकरी के मल का जाँच कराकर कृमि नाशक दवा (नीलवर्म, पानाकिआर, वेन्डाजोल, वेनमीन्थ, डिस्टोडीन आदि) देनी चाहिए। कृमि नाशक दवा तीन से चार माह के अंतराल पर खासकर वर्षा ऋतु शुरू होने के पहले और बाद अवश्य दें।   
    आंतरिक परजीवी के अलावे वाह्य परजीवी से भी बकरी को बहुत हानि पहुँचती है। बकरी में विशेषकर छौनों में जूँ लग जाते है। गेमेक्सीन या मालाथिऑन या साईथिऑन का प्रयोग कर जूँ से बचाना जरूरी है। बकरी में खुजली की बीमारी भी वाह्य परजीवी के कारण ही होती है। बकरी को खुजली से बचाने के लिए प्रत्येक तीन महीने पर 0.25 प्रतिशत (1 लीटर पानी में 5 मिली लीटर दवा) मालाथिऑन या साईथिऑन का घोल से नहलाना चाहिए। नहलाने के पहले बकरी को खासकर गर्दन, नाक, पूँछ जाँघ के अन्दर का भाग तथा छाती के नीचने भाग को सेभलॉन का घोल या कपड़ा धोने वाला साबुन लगा देना चाहिए। इसके बाद मालाथिऑन या साईथिऑन के घोल से बकरी को नहलावें तथा पूरा शरीर को ब्रस से खूब रगड़े। बकरी को दवा का घोल पीने नहीं दें क्योंकि यह जहर है। नहलाने के एक घंटा बाद जहाँ-जहाँ खुजली है करंज का तेल लगा दें। खुजली वाले बकरी को एक दिन बीच कर 4-5 बार नहलाने से खुजली ठीक हो जायेगा। जिस दिन सभी बकरी को नहलाया जाय उसी दिन बकरी घर का छिड़काव भी उसी दवा के 2% घोल (1 लीटर पानी में 40 मिली लीटर दवा मिलाकर) से करें। इस तरह बकरी को खुजली से बचाया जा सकता है। दवा लगाने के बाद हाथ की सफाई अच्छी तरह करें क्योंकि यह जहर है।
    (ख) सर्दी-जुकाम (न्यूमोनिया) यह रोग कीटाणु, सर्दी लगने या प्रतिकूल वातावरण के कारण हो सकता है। इस रोग से पीड़ित बकरी को बुखार रहता है, सांस लेने में तकलीफ होती है एवं नाक से पानी या नेटा निकलता रहता है। कभी-कभी न्यूमोनिया के साथ दस्त भी होता है। सर्दी-जुकाम की बीमारी बच्चों में ज्यादा होती है एवं इससे अधिक बच्चे मरते हैं। इस रोग से ग्रसित बकरी या बच्चों को ठंढ़ से बचावें तथा पशुचिकित्सक की सलाह पर उचित एण्टीबायोटिक दवा (ऑक्सी टेट्रासाइकलिन, डाइक्स्ट्रीसिन, पेनसिलीन, जेन्टामाइसिन, इनरोफ्लोक्सासीन, सल्फा आदि) दें। उचित समय पर उपचार करने से बीमारी ठीक हो जायेगी।

    (ग) पतला दस्त (छेरा रोग) - यह खासकर पेट की कृमि या अधिक हरा चारा खाने से हो सकता है। यह कीटाणु (बैक्टीरिया या वायरस) के कारण भी होता है।
    इसमें पतला दस्त होता है। खून या ऑव मिला हुआ दस्त हो सकता है। सर्वप्रथम उचित दस्त निरोधक दवा (सल्फा, एण्टीबायोटिक, मेट्रान, केओलिन, ऑरीप्रीम, नेवलोन आदि) का प्रयोग कर दस्त को रोकना जरूरी है। दस्त वाले पशु को पानी में ग्लूकोज तथा नमक मिलाकर अवश्य पिलाते रहना चाहिए। कभी-कभी सूई द्वारा पानी चढ़ाने की भी आवश्यकता पड़ सकती है। पतला दस्त ठीक होने (यानि भेनाड़ी आ जाने पर) के बाद मल की जाँच कराकर उचित कृमि नाशक दवा दें। नियमित रूप से कृमि नाशक दवा देते रहने से पतला दस्त की बीमारी कम होगी। इस बीमारी का उचित उपचार पशुचिकित्सक की सलाह से करें।  
    (घ) सुरहा-चपका  यह संक्रामक रोग है। इस रोग में जीभ, ओंठ, तालु तथा खुर में फफोले पड़ जाते हैं। बकरी को तेज बुखार हो सकता है। मुँह से लार गिरता है तथा बकरी लँगड़ाने लगती है।
    ऐसी स्थिति में बीमार बकरी को अलग रखें। मुँह तथा खुर को लाल पोटास (पोटाशियम परमेगनेट) के घोल से साफ करें। खुरों के फफोले या घाव को फिनाइल से धोना चाहिए। मुँह पर सुहागा और गंधक के मिश्रण का लेप लगा सकते हैं।
    इस रोग से बचाव के लिए मई-जून माह में एफ॰एम॰डी॰ का टीका लगवा दें।

    (ङ) आंत ज्वर (इन्टेरोटोक्सिमियां)- इस बीमारी में खाने की रुचि कम हो जाती है। पेट में दर्द होता है, दाँत पीसना भी संभव है, पतला दस्त तथा दस्त के साथ खून आ सकता है।
    दस्त होने पर नमक तथा चीनी मिला हुआ पानी देते रहें। एण्टीबायोटिक एवं सल्फा का प्रयोग करें। इस बीमारी से बचाव के लिए इन्टेरोटेक्सिमियां या एम.सी.सी. का टीका बरसात शुरू होने के पहले लगवा दें।

    (च) पेट फूलना- इस बीमारी में भूख कम लगती है, पेट फूल जाता है, पेट को बजाने पर ढ़ोल के जैसा आवाज निकलता है।
    इस बीमारी में टिमपॉल पाउडर 15-20 ग्राम पानी में मिलाकर 3-3 घंटों पर दें। ब्लोटी सील दवा पिलावें तथा एभील की गोली खिलावें। आप हींग मिलाकर तीसी का तेल भी पिला सकते हैं। कभी-कभी इन्जेक्सन देने वाला सूई को पेट में भोंक कर गैस बाहर निकालना पड़ता है।  
    (छ) जोन्स रोग - पतला दस्त का बार-बार होना, बदबूदार दस्त आना तथा वजन में क्रमशः गिरावट इस बीमारी का पहचान है।
    इससे ग्रसित बकरी को अलग रखें। अगर स्वास्थ्य में गिरावट नहीं हुई हो तो इस तरह के पशु का उपयोग मांस के लिए किया जा सकता है अन्यथा मरने के बाद इसे जमीन में गाड़ दें ताकि बीमारी फैले नहीं।
    (ज) थनैल - बकरी के थन में सूजन, दूध में खराबी कभी-कभी बुखार आ जाना इस रोग के लक्षण हैं।
    दूध निकालने के बाद थन में पशु चिकित्सक की सलाह से दवा देनी चाहिए। थनैल वाले थन को छूने के बाद हाथ अच्छी तरह साबुन एवं डिटॉल से साफ कर लेना चाहिए।
    (झ) कोकसिडिओसिस - यह बकरी के बच्चों में अधिक होता है लेकिन वयस्क बकरी में भी हो सकता है। इसके प्रकोप से पतला दस्त, कभी-कभी खूनी दस्त भी हो सकता है।
    इससे बचाव के लिए पशुचिकित्सक की सलाह पर उचित दवा (सल्फा, एम्प्रोसील, नेफटीन आदि) दें। रोग हो जाने पर दस्त का इलाज करें तथा मल की जांच के बाद उचित दवा दें।
    (ञ) कन्टेजियस इकथाईमा - इस रोग से ग्रसित बकरी के बच्चों के ओठों पर तथा दोनों जबड़ों के बीच वाली जगह पर छाले पड़ जाते है जो कुछ दिनों के बाद सूख जाता है तथा पपड़ी पड़ जाता है यह संक्रामक रोग है।
    इस रोग से ग्रस्त पशु को अलग रखें तथा ओठों को लाल पोटास के घोल से धोकर बोरोग्लिसरिन लगावें।


    बकरी पालन से संबंधित आवश्यक बातें
    बकरी पालकों को निम्नलिखित बातों पर ध्यान देनी चाहिए -
    • ब्लैक बंगाल बकरी का प्रजनन बीटल या सिरोही नस्ल के बकरों से करावें।
    • पाठी का प्रथम प्रजनन 8-10 माह की उम्र के बाद ही करावें।
    • बीटल या सिरोही नस्ल से उत्पन्न संकर पाठी या बकरी का प्रजनन संकर बकरा से करावें।
    • बकरा और बकरी के बीच नजदीकी संबंध नहीं होनी चाहिए।  
    • बकरा और बकरी को अलग-अलग रखना चाहिए।
    • पाठी अथवा बकरियों को गर्म होने के 10-12 एवं 24-26 घंटों के बीच 2 बार पाल दिलावें।
    • बच्चा देने के 30 दिनों के बाद ही गर्म होने पर पाल दिलावें।
    • गाभीन बकरियों को गर्भावस्था के अन्तिम डेढ़ महीने में चराने के अतिरिक्त कम से कम 200 ग्राम दाना का मिश्रण अवश्य दें।
    • बकरियों के आवास में प्रति बकरी 10-12 वर्गफीट का जगह दें तथा एक घर में एक साथ 20 बकरियों से ज्यादा नहीं रखें।
    • बच्चा जन्म के समय बकरियों को साफ-सुथरा जगह पर पुआल आदि पर रखें।
    • बच्चा जन्म के समय अगर मदद की आवश्यकता हो तो साबुन से हाथ धोकर मदद करना चाहिए।
    • जन्म के उपरान्त नाभि को 3 इंच नीचे से नया ब्लेड से काट दें तथा डिटोल या टिन्चर आयोडिन या वोकांडिन लगा दें। यह दवा 2-3 दिनों तक लगावें।
    • बकरी खास कर बच्चों को ठंढ से बचावें।
    • बच्चों को माँ के साथ रखें तथा रात में माँ से अलग कर टोकरी से ढक कर रखें।
    • नर बच्चों का बंध्याकरण 2 माह की उम्र में करावें।
    • बकरी के आवास को साफ-सुथरा एवं हवादार रखें।
    • अगर संभव हो तो घर के अन्दर मचान पर बकरी तथा बकरी के बच्चों को रखें।
    • बकरी के बच्चों को समय-समय पर टेट्रासाइकलिन दवा पानी में मिलाकर पिलावें जिससे न्यूमोनिया का प्रकोप कम होगा।
    • बकरी के बच्चों को कोकसोडिओसीस के प्रकोप से बचाने की दवा डॉक्टर की सलाह से करें।
    • तीन माह से अधिक उम्र के प्रत्येक बच्चों एवं बकरियों को इन्टेरोटोक्सिमिया का टीका अवश्य लगवायें।
    • बकरी तथा इनके बच्चों को नियमित रूप से कृमि नाशक दवा दें।
    • बकरियों को नियमित रूप से खुजली से बचाव के लिए जहर स्नान करावे तथा आवास में छिड़काव करें।
    • बीमार बकरी का उपचार डॉक्टर की सलाह पर करें।
    • नर का वजन 15 किलो ग्राम होने पर मांस हेतु व्यवहार में लायें।
    • खस्सी और पाठी की बिक्री 9-10 माह की उम्र में करना लाभप्रद है।
    दस व्यस्क बकरियों के आय-व्यय का ब्योरा

    व्यय

    अनावर्ती व्यय
    रुपये
    10 वयस्क ब्लैक बंगाल बकरियों का क्रय मूल्य 800 रुपये प्रति  बकरी की दर से
    8000 रुपये  
    1 उन्नत बकरा का क्रय मूल्य 1500 रुपये प्रति  बकरा की दर से
    1500 रुपये
    बकरा-बकरी के लिए आवास व्यवस्था
    5000 रुपये
    बर्त्तन                                       
    500 रुपये        
    कुल लागत
    15,000 रुपये
    आवर्ती व्ययः
    रुपये
    30 मेमनो के लिए 100 ग्राम दाना/दिन/ मेमना की दर 180 दिनों के लिए दाना मिश्रण कुल 5.5 क्विंटल, 600 रुपये प्रति क्विंटल की दर से

    3300 रुपये
    बकरा के लिए दाना मिश्रण(150 ग्राम/बकरा/दिन) तथा 10 बकरी के लिए (100 ग्राम/बकरी/दिन) की दर से दाना मिश्रण कुल 4.5 क्विंटल, 600 रुपये प्रति क्विंटल की दर से
    दवा, टीका आदि पर सलाना खर्च


    2700 रुपये
    2000 रुपये
    कुल खर्च
    8000 रुपये
    कुल खर्च (अनावर्ती व आवर्ती व्यय)
    23,000 रुपये

    आमदनी

    आय की गणना यह मान कर की गई है कि 2 वर्ष में एक बकरी तीन बार बच्चों को जन्म देगी तथा एक-बार में 2 बच्चे उत्पन्न करेगी। बकरियों की देख-रेख घर की औरतों तथा बच्चें के द्वारा किया जायेगा। सभी बकरियों को 8-10 घंटे प्रति दिन चराया जायेगा।
    आय की गणना करते समय यह माना गया कि चार बच्चे की मृत्यु हो जायेगी तथा 13 नर और 13 मादा बिक्री के लिए उपलब्ध होंगे। 1 नर और मादा को प्रजनन हेतु रखकर पुरानी 2 बकरियों की बिक्री की जायेगी।
    12 संकर नर का 9-10 माह की उम्र में विक्रय से प्राप्त राशि 1000 रुपये प्रति बकरे की दर से – 12,000 रुपये
    11 संकर नर का 9-10 माह की उम्र में विक्रय से प्राप्त राशि 1200 रुपये प्रति बकरे की दर से- 13,200 रुपये
    2 ब्लैक बंगाल मादा की बिक्री से प्राप्त राशि 500 की प्रति बकरी की दर से- 1000 रुपये
    कुल आमदनी-  26,200 रुपये
               
    कुल आमदनीः आय आवर्ती खर्च -      
    ब्लैक बंगाल बकरी तथा बकरा के मूल्य का 20 प्रतिशत- आवास खर्च का 10 प्रतिशत-बर्त्तन खर्च का 20
    = 26,200-8000- का 20 %- 5000 का 10% - 500 का 20 %
    = 26,200 – 8000 – 1900 – 500 - 100
    = 26,200 – 10,500
    = 15,700 रुपये प्रतिवर्ष
    = 1570 रुपये प्रति बकरी प्रति वर्ष
    इस आय के अतिरिक्त बकरी पालक प्रतिवर्ष कुल 3400 रुपये मूल्य के बराबर एक संकर बकरा तथा दो बकरी का बिक्री नहीं कर प्रजनन हेतु खुद रखेगा। पांच वर्षों के बाद बकरी पालक के पास 10 संकर नस्ल की बकरियाँ एवं उपयुक्त संख्या में संकर बकरा उपलब्ध होगा तथा बकरी गृह एवं बर्त्तन का कुल खर्च भी निकल आयेगा।

    शनिवार, 28 जुलाई 2012

    खरगोश पालन

    खरगोश पालन क्‍यों।
    • कम निवेश और छोटी जगह में ही खरगोश पालन अधिक आय देता है।
    • खरगोश साधारण खाना खाता है और खरगोश से उच्‍च गुणवत्‍ता वाला प्रोटीनयुक्‍त माँस उपलब्‍ध होता है।
    • मीट उत्‍पादन के अलावा वे फर और खाल के लिए भी पाले जा सकते हैं।


    खरगोश पालन किसके लिए है
    भूमिहीन किसानों, अशिक्षित युवाओं और महिलाओं के लिए खरगोश पालन अंशकालिक नौकरी की तरह एक अतिरिक्‍त आय का साधन बनता है। 

               खरगोश पालन से लाभ 
      • खरगोश पालन से कोई भी अपने परिवार के लिए उच्‍च गुणवत्‍ता वाला प्रोटीनयुक्‍त माँस प्राप्‍त कर सकता है।
      • खरगोश को घर में आसानी से उपलब्‍ध पत्‍ते, बची हुई सब्जियां और चने खिलाए जा सकते हैं।
      • ब्रॉयलर खरगोशों में वृद्धि दर अत्‍यधिक उच्‍च होती है। वे तीन महीने की उम्र में ही 2 किलो के हो जाते हैं।
      • खरगोश में लिटर साइज (बच्‍चों की संख्‍या) सबसे अधिक होती है (8 से 12)
      • अन्‍य माँस से तुलना करने पर खरगोश के मीट में उच्‍च प्रोटीन (21 फीसदी) और कम वसा (8 फीसदी) होता है। इसलिए यह माँस सभी उम्र के लोगों, वयस्‍क से बच्‍चों तक के लिए उपयुक्‍त है।में उच्‍च प्रोटीन (21 फीसदी) और कम वसा (8 फीसदी) होता है। इसलिए यह माँस सभी 


    खरगोश की प्रजातियाँ
    भारी वजन वाली किस्‍में (4 से 6 किलो)

    भारी वजन वाली किस्‍में (4 से 6 किलो)
    • व्‍हाइट जायंट
    • ग्रे जायंट
    • फ्लैमिश जायंट
                                खरगोश के बड़े सफेद नस्ल
    मध्‍यम वजन वाली प्रजातियां (3 से 4 किलो)
    • न्‍यूजीलैंड व्‍हाइट
    • न्‍यूजीलैंड रेड
    • कैलीफोर्नियन
    कम वजन वाली प्रजातियां (2 से 3 किलो)
    • सोवियत चिनचिला
    • डच
                      सोवियत चिंचिला नस्ल


    खरगोश पालन के तरीके
    खरगोश को आंगन में छोटे से शेड के नीचे पाला जा सकता है जिसका निर्माण कम निवेश में भी संभव है। खरगोशों को मौसमी परिस्थितियों जैसे तेज गर्मी, बरसात और कुत्‍तों और बिल्लियों से बचाने के लिए भी शेड अति आवश्‍यक है।
    खरगोश को दो तरह के घरों में पाला जा सकता है-
    डीप लिटर प्रणाली
    यह तरीका कम संख्‍या में खरगोशों को पालने के लिए उपयुक्‍त है। खरगोशों द्वारा गहरा गढ्डा खोदने से रोकने के लिए फर्श ठोस सीमेंट की बनी होनी चाहिए। लिटर सामग्री जैसे धान की भूसी, धान की बालियां या लकड़ी के चिल्‍लों से फर्श को 4-6 इंच तक की गहराई तक भरा जा सकता है। डीप लिटर प्रणाली 30 खरगोशों से अधिक के लिए उपयुक्‍त नहीं है। नर खरगोशों को अलग से रखा जाना चाहिए। इस प्रकार के घर खरगोशों के सघन पालन के लिए उपयुक्‍त नहीं होते। डीप लिटर प्रणाली में पल रहे खरगोश बीमारियों के प्रति कम प्रतिरोधी होते हैं। डीप लिटर प्रणाली में इनका प्रबंधन करना भी काफी कठिन होता है।

    पिंजरा प्रणाली

    स्‍थान की आवश्‍यकता
    • वयस्‍क नर खरगोश - 4 वर्ग फुट
    • डैम/मध्‍यम - 5 वर्ग फुट
    • बनीज/छोटे - 1.5 वर्ग फुट
    वयस्‍क खरगोश का पिंजरा
    वयस्‍क खरगोश के पिंजरे को 1.5 फुट लंबा, 1.5 फुट चौड़ा और 1.5 फुट ऊंचा होना चाहिए। यह पिंजरा एक वयस्‍क खरगोश या दो बढ़ते हुए खरगोशों के लिए ठीक है।
    बढ़ते खरगोश का पिंजरा
    • लंबाई- 3 फुट
    • चौड़ाई- 1.5 फुट
    • ऊंचाई- 1.5 फुट
    ऊपर दिये गये पिंजरे का आकार तीन महीने तक की उम्र के 4-5 खरगोशों के लिए ठीक है।
    बढ़ते हुए खरगोशों के लिए पिंजरे
    बढ़ते खरगोशों के लिए पिंजरे का आकार इसके लिए पर्याप्‍त है, लेकिन पिंजरे के तल और किनारे 1.5X1.5 इंच के वेल्‍ड मेश से बने हुए होने चाहिए। यह छोटे खरगोशों को पिंजरे से बाहर आने से रोकने के लिए इस्‍तेमाल होता है।
    नेस्‍ट बॉक्‍स
    सुरक्षित और शांत वातावरण उपलब्‍ध कराने के लिए बढ़ते हुए खरगोशों के लिए नेस्‍ट बॉक्‍स अनिवार्य है। यह नेस्‍ट बॉक्‍स लोहे या लकड़ी की छड़ों से बनाया जा सकता है। नेस्‍ट बॉक्‍स का आकार बढ़ते हुए खरगोशों को पिंजरे में रखने के लिए इस तरह से होना चाहिए।
    नेस्‍ट बॉक्‍स का आकार
    • लंबाई - 22 इंच
    • चौड़ाई- 12 इंच
    • ऊंचाई- 12 इंच

                 नेस्‍ट बॉक्‍स
    नेस्‍ट बॉक्‍स को ऊपर के सिरे से खोलने के हिसाब से डिजाइन किया जाता है। नेस्‍ट बॉक्‍स का तल 1.5 X 1.5 इंच के वेल्‍ड मेश से बना हुआ होना चाहिए। 15 सेंटीमीटर का गोलाकार छेद नेस्‍ट बॉक्‍स के ऊर्ध्‍व हिस्‍से और तल से 10 सेंटीमीटर ऊपर होना चाहिए। यह छेद पिंजरे के नेस्‍ट बॉक्‍स से पिंजरे तक खरगोश को हरकत करने में आसानी करता है। नेस्‍ट बॉक्‍स के तल से 10 सेंटीमीटर ऊपर छेद का डिजाइन छोटे खरगोशों को नेस्‍ट बॉक्‍स से बाहर आने से रोकता है।
    आंगन में खरगोश पालन के लिए पिंजरे
    आंगन में खरगोश पालन के लिए पिंजरे फर्श से 3’-4’ ऊपर बने होने चाहिए। पिंजरे का तल वाटर प्रूफ होना चाहिए।
    खाद्य और जल नली
    खरगोशों के लिए खाद्य और जल नली आमतौर पर गैल्‍वेनीकृत लोहे से बनी होती है। खाद्य सामग्री अँग्रेजी के J (जे) अक्षर के आकार में होनी चाहिए और सामान्‍यतौर पर इन्‍हें पिंजरे के बाहर ही रखना उपयुक्‍त होता है। खर्च घटाने के लिए खाद्य और पानी कप में उपलब्‍ध कराया जा सकता है।

                अँग्रेजी के जे (J) आकार का नांद या भोजन पात्र
                    


                      पानी पिलाने का पात्र



    खाद्य प्रबंधन
    • खरगोश सभी प्रकार के अनाज (सोर्गम, बाजरा और अन्‍य अनाज) और फलीदार मजे से खाते हैं। हरा चारा जैसे डेशमेंथस, ल्‍यूसरने, अगाथी, रसोई की बची हुई चीजें जैसे- गाजर और गोभी के पत्‍ते और अन्‍य सब्जियों की इस्‍तेमाल में न आने वाली चीजें खरगोश बड़े चाव से खाते हैं।
      खरगोश के खाने में पोषक तत्‍व जो मौजूद होने चाहिए-
      पोषक तत्‍वों का विवरण
      वृद्धि के लिए
      देखभाल के लिए
      गर्भावस्‍था के लिए
      स्‍तनपान के लिए
      पाचन योग्‍य ऊर्जा (कैलोरी)
      2500
      2300
      2500
      2500
      प्रोटीन (%)
      18
      16
      17
      19
      रेशे(%)
      10-13
      13-14
      10-13
      10-13
      वसा (%)
      2
      2
      2
      2
      खरगोश के खाद्य प्रबंधन में याद रखने योग्‍य बिंदु
      • खरगोश के दातं लगातार बढ़ते हैं, इसलिए बढ़ते खरगोशों के लिए अकेले खाद्य सामग्री लेना असंभव है।
      • खाने का समय तय होना चाहिए। यदि खरगोश के खाने में देरी होती है, तो वे बेचैन हो जाते हैं जिससे उनका वजन घटता है।
      • दिन में अधिक तापमान के चलते दिन के समय खरगोश खाना नहीं लेंगे, लेकिन वे रात में सक्रिय रहते हैं। इसलिए खरगोशों को रात में हरा चारा देना चाहिए क्‍योंकि वह बरबाद नहीं जाता। सुबह के समय में ठोस खाना दिया जाना चाहिए।
      • मुख्‍य भोजन को गोली के रूप में भी दिया जा सकता है। यदि गोली के रूप में भोजन उपलब्‍ध न हो, तो मुख्‍य भोजन को पानी के साथ मिलाकर उसकी छोटी-छोटी गोलियां बना कर भी खरगोश को दिया जा सकता है।
      • एक खरगोश को एक दिन में 40 ग्राम मुख्‍य भोजन और 40 ग्राम हरा चारा दिया जा सकता है।
      • खरगोश हमेशा ताजा हरा चारा खाता है। हरे चारे को कभी भी पिंजरे की फर्श पर नहीं रखना चाहिए, लेकिन उन्‍हें पिंजरे के किनारे डाला जा सकता है।
      • दिन के किसी भी समय खरगोश को साफ ताजा पानी ही उपलब्‍ध कराया जाना चाहिए।
      खरगोश के प्रकार
      अनुमानित वजन
      खाद्य राशि/ दिन (ग्राम)
      ठोस खाद्य
      हरा पत्‍ते
      वयस्‍क नर खरगोश
      4-5 किलोग्राम
      100
      250
      वयस्‍क मादा खरगोश
      4-5 किलोग्राम
      100
      300
      स्‍तनपायी और गर्भवती मादा खरगोश
      4-5 किलोग्राम
      150
      150
      छोटे खरगोश
      0.6-0.7 किलोग्राम
      50-75
      150
      खाद्य सामग्री के नमूने-
      घटक  
      मात्रा
      टूटे हुए मकई के दाने
      30 हिस्‍से
      टूटा और साबुत बाजरा
      30 हिस्‍से
      मूंगफली के तेल के टुकड़े
      13 हिस्‍से
      गेंहू के दाने
      25 हिस्‍से
      खनिज मिश्रण
      1.5 हिस्‍से
      नमक
      0.5 हिस्‍से



    खरगोश का प्रजनन प्रबंधन
    प्रजनन की उम्र

    • मादा खरगोश- 5-6 महीने
    • नर खरगोश- 5-6 महीने (नर खरगोश 5-6 महीने की उम्र में ही परिपक्‍व हो जाते हैं, लेकिन उच्‍च कोटि के खरगोशों की प्राप्ति के लिए प्रजनन के समय उनकी उम्र एक वर्ष की होनी चाहिए।

    प्रजनन के लिए खरगोशों का चुनाव

    • वयस्‍क शारीरिक वजन को प्राप्‍त करने के बाद 5-8 महीने की उम्र में खरगोशों का चुनाव किया जा सकता है।
    • नर और मादा खरगोश के प्रजनन के लिए चुनाव उच्‍च लिटर आकार से होना चाहिए।
    • प्रजनन के लिए स्‍वस्‍थ खरगोश का ही चयन किया जाना चाहिए। स्‍वस्‍थ खरगोश सक्रिय होते हैं और आमतौर पर भोजन और पानी लेने के मामले में वे सामान्‍य होते हैं। इसके अलावा वे अपने शरीर को साफ रखते हैं। स्‍वस्‍थ खरगोश के बाल सामान्‍यत: साफ, मुलायम और चमकीले होते हैं।
    • नर खरगोश के प्रजनन के लिए चुनाव करते समय ऊपर दी गई चीजों के अलावा यह देखना चाहिए कि उसके अण्‍डाशय में दो टेस्टिस हैं या नहीं।
    • नर खरगोश का चुनाव करते समय उन्‍हें मादा खरगोश के साथ यौन क्रिया करने की छूट देनी चाहिए ताकि उसकी प्रजनन क्षमता के बारे में जाना जा सके।

    मादा खरगोशों में उत्‍तेजक संकेत या ऋतुचक्र लक्षण
    खरगोशों में कोई विशिष्‍ट ऋतुचक्र नहीं होता। जब कभी मादा खरगोश नर खरगोश को संभोग के लिए छूट देती है, तभी मादा खरगोश ऋतुचक्र में होती है। कभी-कभी यदि एक मादा खरगोश उत्‍तेजक होती है, उसकी योनि संकुचित होती है। जब नर खरगोश उत्‍तेजना या ऋतुचक्र में मादा खरगोश के पास रखा जाता है, मादा खरगोश उदासीनता दिखाती है और अपने शरीर के पिछले हिस्‍से को ऊपर नहीं उठाती है। उसी समय यदि मादा खरगोश उत्‍तेजक नहीं होती, तो वह पिंजरे के कोने में चली जाती है और नर खरगोश पर हमला कर देती है।

    खरगोशों का प्रजनन
    प्रजनन के बारे में विस्‍तृत सूचना
    नर:मादा अनुपात
    1:10
    पहले संभोग के समय आयु
    5-6 महीने। नर खरगोश पहले संभोग के दौरान अच्‍छे लिटर आकार के लिए आमतौर पर 1 वर्ष के होते हैं।
    संभोग के समय मादा खरगोश का वजन
    2.25-2.5 किलो
    वृद्धि का समय
    28-31 दिन
    दूध छुड़ाने की उम्र
    6 हफ्ते
    किंडलिंग के बाद संभोग का समय
    किंडलिंग के 6 हफ्ते बाद या छोटे खरगोशों के दूध छुड़ाने के बाद
    बेचने के समय आयु
    12 हफ्ते
    बेचने के समय वजन
    लगभग 2 किलो या उससे बड़े
    उत्‍तेजक संकेत देने वाली मादा खरगोश को नर खरगोश के पिंजरे में ले जाया जाता है। यदि मादा खरगोश ऋतुचक्र में सही समय में हो तो वह अपनी पूंछ ऊपर उठाकर नर खरगोश को अपने साथ संभोग करने का आमंत्रण देती है। सफलतापूर्वक संभोग के बाद नर खरगोश एक ओर गिर जाता है और विशेष तरह की आवाजें निकालता है। एक नर खरगोश का इस्‍तेमाल सप्‍ताह में 3 या 4 दिन से अधिक के लिए नहीं किया जाना चाहिए। इसी तरह एक नर खरगोश को दिन में 2 से 3 बार से अधिक प्रजनन के लिए इस्‍तेमाल नहीं किया जाना चाहिए। प्रजनन के लिए इस्‍तेमाल किए जाने वाले नर खरगोश को पर्याप्‍त आराम और अच्‍छा पोषण दिया जाना चाहिए। एक रेबीट्री में 10 मादा खरगोशों के लिए एक नर खरगोश होना चाहिए। एक या दो नर खरगोश अतिरिक्‍त पाले जा सकते हैं ताकि यदि प्रजनन के लिए इस्‍तेमाल किए जाने वाले खरगोश बीमार हो गए, तो उनका इस्‍तेमाल किया जा सके।
    ब्रायलर खरगोशों के मामले में गर्भावधि 28 से 31 दिन की होती है। गर्भावस्‍था का पता प्रजनन के 12-15 दिन बाद मादा खरगोश के पेट को छूकर लगाया जा सकता है। पिछले पैरों के बीच में पेट के हिस्‍से में स्‍पर्श क्रिया करनी चाहिए। यदि कोई गोलमटोल सा हिस्‍सा उंगुलियों के बीच में पकड़ में आता है, इसका मतलब मादा खरगोश गर्भवती है। जो मादा खरगोश 12-14 दिन बाद गर्भवती नहीं हुई हों, उन्‍हें नर खरगोश के साथ फिर से संभोग करने दिया जाना चाहिए। यदि कोई मादा खरगोश लगातार तीन बार संभोग के बाद भी गर्भवती नहीं हुई हो, तो उस खरगोश को फार्म से निकाला जा सकता है।
    आमतौर पर संभोग के 25 दिन बाद से गर्भवती मादा खरगोशों का वजन 500 से 700 ग्राम बढ़ जाता है। इस बढ़े हुए वजन को खरगोशों को उठाकर देखा जा सकता है। यदि गर्भवती मादा खरगोश को नर खरगोश के साथ संभोग करने की छूट दी जाए, तो वे ऐसा नहीं करेंगे।
    गर्भवती मादा खरगोश की देखभाल

    गर्भावस्‍था का पता लगाने के बाद गर्भवती मादा खरगोश को सामान्‍य भोजन से 100 से 150 ग्राम अधिक मुख्‍य भोजन की मात्रा खिलाई जानी चाहिए। गर्भवती मादा खरगोश को संभोग के बाद 25वें दिन पिंजरे में भेजा जा सकता है। संभोग की संभावित ति‍थि के पांच दिन पहले नेस्‍ट बॉक्‍स को पिंजरे में रखा जा सकता है। सूखे नारियल के रेशे या धान की फूस का इस्‍तेमाल नेस्‍ट बॉक्‍स में बिछाने की सामग्री के तौर पर किया जाता है। गर्भवती मादा खरगोश अपने पेट से बालों को तोड़ देती है और किंडलिंग के एक या दो दिन पहले नवजात के लिए एक नेस्‍ट का निर्माण करती है। इस समय के दौरान खरगोश को परेशान नहीं किया जाना चाहिए और बाहर से लोगों को किंडलिंग पिंजरे के पास आने की छूट नहीं दी जानी चाहिए।
    आमतौर पर कींडलिंग सुबह जल्‍दी होती है। सामान्‍यतौर पर कींडलिंग 15 से 30 मिनट की अवधि में समाप्‍त होती है। डैम अपने आपको और अपने छोटे बच्‍चे को सुबह जल्‍दी ही साफ कर लेती है। नेस्‍ट बॉक्‍स की जांच सुबह जल्‍दी ही कर ली जानी चाहिए। मरे हुए बच्‍चे को नेस्‍ट बॉक्‍स से तुरंत हटा दिया जाना चाहिए। नेस्‍ट बॉक्‍स की जांच के दौरान डैम बेचैन हो सकती है। इसलिए डैम को नेस्‍ट बॉक्‍स की जांच के पहले ही हटा लिया जाना चाहिए।

    नवजात खरगोश की देखभाल और प्रबंधन

    जन्‍म के दौरान पैदा हुए खरगोश की आंखें बंद होती हैं और उनके शरीर पर बाल नहीं होते। सभी नए पैदा हुए खरगोश आमतौर पर नेस्‍ट बॉक्‍स में डैम द्वारा बनाए गए बिछौने पर लेटते हैं। आमतौर पर डैम सुबह के समय दिन में एक बार अपने पैदा हुए बच्‍चे को दूध पिलाती है। यदि हम मादा खरगोश के लिए बच्‍चे को दिनभर दूध देने के लिए बाध्य करेंगे तो वह अपना दूध नहीं निकालेगी। आमतौर पर पैदा हुए खरगोशों की त्‍वचा अपनी मां से प्राप्‍त दूध की पर्याप्‍त मात्रा से चमकीली होती है। लेकिन जिन खरगोशों को अपनी मां से पर्याप्‍त दूध नहीं मिल पाता, उनकी त्‍वचा सूखी होती है और उस पर झुर्रियां दिखाई पड़ती हैं और उनके शरीर का तापमान निम्‍न रहता है एवं वे आलसी दिखाई देते हैं।

    सौतेली मां से स्‍तनपान
    आमतौर पर एक मादा खरगोश के 8 से 12 स्‍तनाग्र होते हैं। जब लिटर की संख्‍या स्‍तनाग्र की संख्‍या से ज्‍यादा होती है तो नए पैदा हुए खरगोश पर्याप्‍त मात्रा में दूध नहीं प्राप्‍त कर पाते और उसका परिणाम उनकी मौत के रूप में आता है। दूसरी ओर अन्‍य परिस्थिति में जैसे उसकी अच्‍छी तरह से देखभाल में कमी के कारण उनकी मौत भी संभव है। ऐसे में सौतेली मां का इस्‍तेमाल नए बच्‍चे की नर्सिंग के लिए किया जाता है।

    सौतेली माता के लिटर बदलने के दौरान ध्‍यान रखने वाले बिंदु

    • बदले जाने वाले बच्‍चों और सौतेली मां के बच्‍चों के बीच उम्र का अंतर 48 घंटे से ज्‍यादा नहीं होना चाहिए
    • तीन से ज्‍यादा बच्‍चों या सौतेली मांओं को नहीं बदला जाना चाहिए
    • छोटे खरगोशों को नेस्‍ट बॉक्‍स में तीन सप्‍ताह का होने तक ठहराया जाता है। बाद में नेस्‍ट बॉक्‍स को किंडलिंग पिंजरे से हटा दिया जाता है। छोटे खरगोशों से 4 से 6 हफ्ते की उम्र में दूध छुड़ाया जा सकता है। दूध छुड़ाते समय पहले डैम को किंडलिंग पिंजरे से हटाना चाहिए और छोटे खरगोशों को उसी पिंजरे में 1 से 2 हफ्ते रखा जाना चाहिए। बाद में खरगोशों का लिंग पहचाना जाना चाहिए और फिर अलग-अलग लिंग के खरगोशों को अलग-अलग पिंजरों में रखा जाना चाहिए। हमें अचानक खरगोशों के भोजन में परिवर्तन नहीं करना चाहिए।
    छोटे खरगोशों की मृत्‍यु दर में कमी

    शुरुआती 15 दिनों तक छोटे खरगोश डैम के साथ रहते हैं। इस समय के दौरान केवल माता का दूध ही पैदा हुए बच्‍चे के लिए भोजन होता है। इस समय में छोटे खरगोशों की मौत मुख्‍यत: डैम के चलते होती है। 15 दिनों के बाद छोटे खरगोश पानी और खाना लेने में सक्षम हो जाते हैं। इस समय में वे बीमारियों के प्रति कम प्रतिरोधी होते हैं, इसलिए यह सलाह दी जाती है कि डैम और छोटे खरगोश को उबाला हुआ ठंडा पानी दिया जाना चाहिए। एक मिलीलीटर हाइड्रोजन पेरोक्‍साइड को एक लीटर पानी में खरगोशों को उपलब्‍ध करवाए जाने से 20 मिनट पहले मिलाया जाना चाहिए।

    स्‍वस्‍थ खरगोश के लक्षण
    • स्‍वस्‍थ और चमकीले बाल
    • अत्‍यधिक सक्रिय
    • खाने के बाद भी अच्‍छा और जल्‍दी से खा लेना
    • आमतौर पर आंखें बिना किसी डिस्‍चार्ज के चमकीली रहती हैं
    • उत्‍साहजनक तरीके से वजन का बढ़ना


    बीमार खरगोश के लक्षण
                         
    • कमजोर और उदासीन
    • वजन में कमी और दुर्बलता
    • बालों का तेजी से गिरना
    • खरगोशों में किसी सक्रिय गतिविधि का न होना। आमतौर पर वे पिंजरे में किसी एक स्‍थान पर खड़े रहते हैं।
    • खाद्य को कम मात्रा में लेना
    • आंख, नाक, मलद्वार और मुंह से पानी या अन्‍य चीज का बाहर निकलना
    • शरीरिक तापमान और श्‍वसन दर का बढ़ना

    खरगोश को होनेवाली बीमारियाँ
    चिकित्‍सीय संकेत


    लगातार खांसने और छींकने के दौरान खरगोश अपनी नाक अपने आगे के पैरों से लगातार खुजलाते हैं। श्‍वसन के दौरान निकलने वाली आवाज बरतनों की खड़खड़ाहट जैसी होती है। इसके अलावा इनमें बुखार और हैजा भी होता है। इसके लिए जिम्‍मेदार सूक्ष्‍म जीवाणु ही उनकी त्‍वचा के नीचे पिस्‍सू पैदा कर देते हैं और उनका गला खराब कर देते हैं।
    उपचार: पिस्‍सू लगने की स्थिति में उपचार उतना प्रभावी नहीं होता। भले ही इनसे ग्रस्‍त खरगोश ठीक हो जाते हैं, लेकिन वे अन्‍य स्‍वस्‍थ खरगोशों को संक्रमित कर सकते हैं। इससे बचने का एक ही तरीका है कि ऐसे खरगोशों को फार्म से बाहर निकाल दिया जाए।
    एंटेराइटिस: खरगोशों में एंटेराइटिस पैदा करने करने के लिए कई सूक्ष्‍म जीवाणु जिम्‍मेदार होते हैं। इन जीवाणुओं के प्रति खरगोशों को संवेदनशील बनाने में खाने में हुआ अचानक बदलाव, भोजन में कार्बोहाइड्रेट की अत्‍यधिक मात्रा, प्रतिरोध क्षमता में कमी, अस्‍वच्‍छ भोजन और पानी आदि जिम्‍मेदार हैं। इस बीमारी के चिकित्‍सीय संकेतों में हैजा, पेट का आकार बढ़ना, बाल मुरझाना और पानी की कमी है। हैजा के चलते पानी की कमी से खरगोश सुस्‍त हो जाते हैं।
    राई नेक बीमारी
    पिस्‍सुओं से संक्रमित खरगोश राई नेक बीमारी की चपेट में आ जाते हैं जो उनके बीच के कान और दिमाग पर असर डालती है। कान से पास पिव निकलने के कारण खरगोश अपना सिर एक तरफ झुका लेता है। पिस्‍सुओं के प्रभावी उपचार से इस बीमारी को नियंत्रित किया जा सकता है।
    मा‍स्‍टाइटिस
    बच्‍चा खरगोशों की देखभाल करने वाली माता खरगोश को मास्‍टाइटिस हो सकता है। जिस उदग्र में यह बीमारी होती है, वह लाल और दर्दीला हो जाता है। एंटीबायोटिक देने से इस बीमारी को नियंत्रित किया जा सकता है।

    फंगस के संक्रमण से होने वाली बीमारियां
              खरगोशों में त्‍वचा का संक्रमण डर्मेटोपाइसिस फंगस से होता है। कान और नाक के आसपास बाल की कमी हो जाती है। खुजली के कारण खरगोश लगातार संक्रतिम क्षेत्रों में खुजली करते हैं जिससे उस हिस्‍से में घाव हो जाते हैं। इसके बाद इन इलाकों में बैक्‍टीरिया के संक्रमण से पस बनना शुरू हो जाता है।
    उपचार
    प्रभावित हिस्‍सों पर ग्रीसियोफुल्विन या बेंजाइल बेंजोएट क्रीम लगानी चाहिए। इस बीमारी के नियंत्रण के लिए भोजन में प्रति किलो 0.75 ग्राम ग्रीसियोफुल्विन मिला कर दो हफ्ते तक दिया जाना चाहिए।

    खरगोशः बीमारी नियंत्रित करने हेतु स्‍वच्‍छता मानक
      • खरगोश फार्म ऐसे स्‍थान पर होना चाहिए जो पर्याप्‍त हवादार हो
      • पिंजरे साफ-सुथरे होने चाहिए
      • खरगोशों की झोपड़ी के चारों ओर पेड़ होने चाहिए
      • साल में दो बार सफेदी की जानी चाहिए
      • हफ्ते में दो बार पिंजरों के नीचे चूने का पानी छिड़कना चाहिए
      • गर्मी के मौसम में गर्मी से होने वाली मौतों को रोकने के लिए खरगोशों पर पानी का छिड़काव किया जाना चाहिए
      • पीने के लिए पानी देने से पहले उसे अच्‍छी तरह उबाल लिया जाना चाहिए और विशेषतौर पर डैम और हाल में पैदा हुए बच्‍चों के लिए उसे ठंडा कर लिया जाना चाहिए
      • बैक्‍टीरियाई सूक्ष्‍म जीवाणुओं से होने वाली बीमारी को रोकने के लिए प्रति ‍लीटर पीने के पानी में 0.5 टेट्रासाइक्‍लीन मिलानी चाहिए और हर महीने में तीन दिन इसे दिया जाना चाहिए।
       बीमारी को रोकने के लिए प्रति ‍लीटर पीने के पानी में 0.5 टेट्रासाइक्‍लीन मिलानी चाहिए और हर महीने में तीन दिन इसे दिया जाना चाहिए।