बकरी पालन प्रायः सभी जलवायु में कम लागत, साधारण आवास, सामान्य
रख-रखाव तथा पालन-पोषण के साथ संभव है। इसके उत्पाद की बिक्री हेतु बाजार
सर्वत्र उपलब्ध है। इन्हीं कारणों से पशुधन में बकरी का एक विशेष स्थान
है।
उपरोक्त गुणों के आधार पर राष्ट्रपिता महात्मा गाँधी बकरी को ‘गरीब की गाय’ कहा करते थे। आज के परिवेश में भी यह कथन महत्वपूर्ण है। आज जब एक ओर पशुओं के चारे-दाने एवं दवाई महँगी होने से पशुपालन आर्थिक दृष्टि से कम लाभकारी हो रहा है वहीं बकरी पालन कम लागत एवं सामान्य देख-रेख में गरीब किसानों एवं खेतिहर मजदूरों के जीविकोपार्जन का एक साधन बन रहा है। इतना ही नहीं इससे होने वाली आय समाज के आर्थिक रूप से सम्पन्न लोगों को भी अपनी ओर आकर्षित कर रहा है। बकरी पालन स्वरोजगार का एक प्रबल साधन बन रहा है।
बकरी पालन की उपयोगिताः बकरी पालन मुख्य रूप से मांस, दूध एवं रोंआ (पसमीना एवं मोहेर) के लिए किया जा सकता है। झारखंड राज्य के लिए बकरी पालन मुख्य रूप से मांस उत्पादन हेतु एक अच्छा व्यवसाय का रूप ले सकती है। इस क्षेत्र में पायी जाने वाली बकरियाँ अल्प आयु में वयस्क होकर दो वर्ष में कम से कम 3 बार बच्चों को जन्म देती हैं और एक वियान में 2-3 बच्चों को जन्म देती हैं। बकरियों से मांस, दूध, खाल एवं रोंआ के अतिरिक्त इसके मल-मूत्र से जमीन की उर्वरा शक्ति बढ़ती है। बकरियाँ प्रायः चारागाह पर निर्भर रहती हैं। यह झाड़ियाँ, जंगली घास तथा पेड़ के पत्तों को खाकर हमलोगों के लिए पौष्टिक पदार्थ जैसे मांस एवं दूध उत्पादित करती हैं।
बकरियों की विभिन्न उपयोगी नस्लें : संसार में बकरियों की कुल 102 प्रजातियाँ उपलब्ध है। जिसमें से 20 भारतवर्ष में है। अपने देश में पायी जाने वाली विभिन्न नस्लें मुख्य रूप से मांस उत्पादन हेतु उपयुक्त है। यहाँ की बकरियाँ पश्चिमी देशों में पायी जाने वाली बकरियों की तुलना में कम मांस एवं दूध उत्पादित करती है क्योंकि वैज्ञानिक विधि से इसके पैत्रिकी विकास, पोषण एवं बीमारियों से बचाव पर समुचित ध्यान नहीं दिया गया है। बकरियों का पैत्रिकी विकास प्राकृतिक चुनाव एवं पैत्रिकी पृथकता से ही संभव हो पाया है। पिछले 25-30 वर्षों में बकरी पालन के विभिन्न पहलुओं पर काफी लाभकारी अनुसंधान हुए हैं फिर भी राष्ट्रीय एवं क्षेत्रीय स्तर पर गहन शोध की आवश्यकता है। भारतीय कृषि अनुसंधान संस्थान, नई दिल्ली की ओर से भारत की विभिन्न जलवायु की उन्नत नस्लें जैसेः ब्लैक बंगला, बारबरी, जमनापारी, सिरोही, मारबारी, मालावारी, गंजम आदि के संरक्षण एवं विकास से संबंधित योजनाएँ चलायी जा रही है। इन कार्यक्रमों के विस्तार की आवश्यकता है ताकि विभिन्न जलवायु एवं परिवेश में पायी जाने वाली अन्य उपयोगी नस्लों की विशेषता एवं उत्पादकता का समुचित जानकारी हो सके। इन जानकारियों के आधार पर ही क्षेत्र विशेष के लिए बकरियों से होने वाली आय में वृद्धि हेतु योजनाएँ सुचारू रूप से चलायी जा सकती है।
भारत की उपयोगी नस्लें निम्नलिखित हैं :-
01. ब्लैक बंगाल 02. जमनापारी
03. बारबरी 04. बीटल
05. सिरोही 06. मारबारी
07. मालावारी 08. संगमनेरी
09. जाकराना 10. कश्मीरी
11. गंजम 12. कच्छी
13. चेगु 14. गद्दी
ब्लैक बंगालः इस जाति की बकरियाँ पश्चिम बंगाल, झारखंड, असोम, उत्तरी उड़ीसा एवं बंगाल में पायी जाती है। इसके शरीर पर काला, भूरा तथा सफेद रंग का छोटा रोंआ पाया जाता है। अधिकांश (करीब 80 प्रतिशत) बकरियों में काला रोंआ होता है। यह छोटे कद की होती है वयस्क नर का वजन करीब 18-20 किलो ग्राम होता है जबकि मादा का वजन 15-18 किलो ग्राम होता है। नर तथा मादा दोनों में 3-4 इंच का आगे की ओर सीधा निकला हुआ सींग पाया जाता है। इसका शरीर गठीला होने के साथ-साथ आगे से पीछे की ओर ज्यादा चौड़ा तथा बीच में अधिक मोटा होता है। इसका कान छोटा, खड़ा एवं आगे की ओर निकला रहता है।
इस नस्ल की प्रजनन क्षमता काफी अच्छी है। औसतन यह 2 वर्ष में 3 बार बच्चा देती है एवं एक वियान में 2-3 बच्चों को जन्म देती है। कुछ बकरियाँ एक वर्ष में दो बार बच्चे पैदा करती है तथा एक बार में 4-4 बच्चे देती है। इस नस्ल की मेमना 8-10 माह की उम्र में वयस्कता प्राप्त कर लेती है तथा औसतन 15-16 माह की उम्र में प्रथम बार बच्चे पैदा करती है। प्रजनन क्षमता काफी अच्छी होने के कारण इसकी आबादी में वृद्धि दर अन्य नस्लों की तुलना में अधिक है। इस जाति के नर बच्चा का मांस काफी स्वादिष्ट होता है तथा खाल भी उत्तम कोटि का होता है। इन्हीं कारणों से ब्लैक बंगाल नस्ल की बकरियाँ मांस उत्पादन हेतु बहुत उपयोगी है। परन्तु इस जाति की बकरियाँ अल्प मात्रा (15-20 किलो ग्राम/वियान) में दूध उत्पादित करती है जो इसके बच्चों के लिए अपर्याप्त है। इसके बच्चों का जन्म के समय औसत् वजन 1.0-1.2 किलो ग्राम ही होता है। शारीरिक वजन एवं दूध उत्पादन क्षमता कम होने के कारण इस नस्ल की बकरियों से बकरी पालकों को सीमित लाभ ही प्राप्त होता है।
जमुनापारीः जमुनापारी भारत में पायी जाने वाली अन्य नस्लों की तुलना में सबसे उँची तथा लम्बी होती है। यह उत्तर प्रदेश के इटावा जिला एवं गंगा, यमुना तथा चम्बल नदियों से घिरे क्षेत्र में पायी जाती है। एंग्लोनुवियन बकरियों के विकास में जमुनापारी नस्ल का विशेष योगदान रहा है।
इसके नाक काफी उभरे रहते हैं। जिसे ‘रोमन’ नाक कहते हैं। सींग छोटा एवं चौड़ा होता है। कान 10-12 इंच लम्बा चौड़ा मुड़ा हुआ तथा लटकता रहता है। इसके जाँघ में पीछे की ओर काफी लम्बे घने बाल रहते हैं। इसके शरीर पर सफेद एवं लाल रंग के लम्बे बाल पाये जाते हैं। इसका शरीर बेलनाकार होता है। वयस्क नर का औसत वजन 70-90 किलो ग्राम तथा मादा का वजन 50-60 किलो ग्राम होता है।
इसके बच्चों का जन्म समय औसत वजन 2.5-3.0 किलो ग्राम होता है। इस नस्ल की बकरियाँ अपने गृह क्षेत्र में औसतन 1.5 से 2.0 किलो ग्राम दूध प्रतिदिन देती है। इस नस्ल की बकरियाँ दूध तथा मांस उत्पादन हेतु उपयुक्त है। बकरियाँ सलाना बच्चों को जन्म देती है तथा एक बार में करीब 90 प्रतिशत एक ही बच्चा उत्पन्न करती है। इस जाति की बकरियाँ मुख्य रूप से झाड़ियाँ एवं वृक्ष के पत्तों पर निर्भर रहती है। जमुनापारी नस्ल के बकरों का प्रयोग अपने देश के विभिन्न जलवायु में पायी जाने वाली अन्य छोटे तथा मध्यम आकार की बकरियाँ के नस्ल सुधार हेतु किया गया। वैज्ञानिक अनुसंधान से यह पता चला कि जमनापारी सभी जलवायु के लिए उपयुक्त नही हैं।
बीटलः बीटल नस्ल की बकरियाँ मुख्य रूप से पंजाब प्रांत के गुरदासपुर जिला के बटाला अनुमंडल में पाया जाता है। पंजाब से लगे पाकिस्तान के क्षेत्रों में भी इस नस्ल की बकरियाँ उपलब्ध है। इसका शरीर भूरे रंग पर सफेद-सफेद धब्बा या काले रंग पर सफेद-सफेद धब्बा लिये होता है। यह देखने में जमनापारी बकरियाँ जैसी लगती है परन्तु ऊँचाई एवं वजन की तुलना में जमुनापारी से छोटी होती है। इसका कान लम्बा, चौड़ा तथा लटकता हुआ होता है। नाक उभरा रहता है। कान की लम्बाई एवं नाक का उभरापन जमुनापारी की तुलना में कम होता है। सींग बाहर एवं पीछे की ओर घुमा रहता है। वयस्क नर का वजन 55-65 किलो ग्राम तथा मादा का वजन 45-55 किलो ग्राम होता है। इसके वच्चों का जन्म के समय वजन 2.5-3.0 किलो ग्राम होता है। इसका शरीर गठीला होता है। जाँघ के पिछले भाग में कम घना बाल रहता है। इस नस्ल की बकरियाँ औसतन 1.25-2.0 किलो ग्राम दूध प्रतिदिन देती है। इस नस्ल की बकरियाँ सलाना बच्चे पैदा करती है एवं एक बार में करीब 60% बकरियाँ एक ही बच्चा देती है।
बीटल नस्ल के बकरों का प्रयोग अन्य छोटे तथा मध्यम आकार के बकरियों के नस्ल सुधार हेतु किया जाता है। बीटल प्रायः सभी जलवायु हेतु उपयुक्त पाया गया है।
बारबरीः बारबरी मुख्य रूप से मध्य एवं पश्चिमी अफ्रीका में पायी जाती है। इस नस्ल के नर तथा मादा को पादरियों के द्वारा भारत वर्ष में सर्वप्रथम लाया गया। अब यह उत्तर प्रदेश के आगरा, मथुरा एवं इससे लगे क्षेत्रों में काफी संख्या में उपलब्ध है।
यह छोटे कद की होती है परन्तु इसका शरीर काफी गठीला होता है। शरीर पर छोटे-छोटे बाल पाये जाते हैं। शरीर पर सफेद के साथ भूरा या काला धब्बा पाया जाता है। यह देखने में हिरण के जैसा लगती है। कान बहुत ही छोटा होता है। थन अच्छा विकसित होता है। वयस्क नर का औसत वजन 35-40 किलो ग्राम तथा मादा का वजन 25-30 किलो ग्राम होता है। यह घर में बांध कर गाय की तरह रखी जा सकती है। इसकी प्रजनन क्षमता भी काफी विकसित है। 2 वर्ष में तीन बार बच्चों को जन्म देती है तथा एक वियान में औसतन 1.5 बच्चों को जन्म देती है। इसका बच्चा करीब 8-10 माह की उम्र में वयस्क होता है। इस नस्ल की बकरियाँ मांस तथा दूध उत्पादन हेतु उपयुक्त है। बकरियाँ औसतन 1.0 किलो ग्राम दूध प्रतिदिन देती है।
सिरोहीः सिरोही नस्ल की बकरियाँ मुख्य रूप से राजस्थान के सिरोही जिला में पायी जाती है। यह गुजरात एवं राजस्थान के सीमावर्ती क्षेत्रों में भी उपलब्ध है। इस नस्ल की बकरियाँ दूध उत्पादन हेतु पाली जाती है लेकिन मांस उत्पादन के लिए भी यह उपयुक्त है। इसका शरीर गठीला एवं रंग सफेद, भूरा या सफेद एवं भूरा का मिश्रण लिये होता है। इसका नाक छोटा परन्तु उभरा रहता है। कान लम्बा होता है। पूंछ मुड़ा हुआ एवं पूंछ का बाल मोटा तथा खड़ा होता है। इसके शरीर का बाल मोटा एवं छोटा होता है। यह सलाना एक वियान में औसतन 1.5 बच्चे उत्पन्न करती है। इस नस्ल की बकरियों को बिना चराये भी पाला जा सकता है।
झारखंड प्रांत की जलवायु में उपरोक्त वर्णित नस्लों का पालन किया जा सकता है या यहाँ पायी जाने वाली बकरियों के नस्ल सुधार हेतु बीटल, बारबरी, सिरोही एवं जमनापारी के बकरे व्यवहार में लाये जा सकते हैं।
अल्पाइन - यह स्विटजरलैंड की है। यह मुख्य रूप से दूध
उत्पादन के लिए उपयुक्त है। इस नस्ल की बकरियाँ अपने गृह क्षेत्रों में
औसतन 3-4 किलो ग्राम दूध प्रतिदिन देती है।
एंग्लोनुवियन - यह प्रायः यूरोप के विभिन्न देशों में पायी जाती है। यह मांस तथा दूध दोनों के लिए उपयुक्त है। इसकी दूध उत्पादन क्षमता 2-3 किलो ग्राम प्रतिदिन है।
सानन - यह स्विटजरलैंड की बकरी है। इसकी दूध उत्पादन क्षमता अन्य सभी नस्लों से अधिक है। यह औसतन 3-4 किलो ग्राम दूध प्रतिदिन अपने गृह क्षेत्रों में देती है।
टोगेनवर्ग - टोगेनवर्ग भी स्विटजरलैंड की बकरी है। इसके नर तथा मादा में सींग नहीं होता है। यह औसतन 3 किलो ग्राम दूध प्रतिदिन देती है।
उपरोक्त गुणों के आधार पर राष्ट्रपिता महात्मा गाँधी बकरी को ‘गरीब की गाय’ कहा करते थे। आज के परिवेश में भी यह कथन महत्वपूर्ण है। आज जब एक ओर पशुओं के चारे-दाने एवं दवाई महँगी होने से पशुपालन आर्थिक दृष्टि से कम लाभकारी हो रहा है वहीं बकरी पालन कम लागत एवं सामान्य देख-रेख में गरीब किसानों एवं खेतिहर मजदूरों के जीविकोपार्जन का एक साधन बन रहा है। इतना ही नहीं इससे होने वाली आय समाज के आर्थिक रूप से सम्पन्न लोगों को भी अपनी ओर आकर्षित कर रहा है। बकरी पालन स्वरोजगार का एक प्रबल साधन बन रहा है।
बकरी पालन की उपयोगिताः बकरी पालन मुख्य रूप से मांस, दूध एवं रोंआ (पसमीना एवं मोहेर) के लिए किया जा सकता है। झारखंड राज्य के लिए बकरी पालन मुख्य रूप से मांस उत्पादन हेतु एक अच्छा व्यवसाय का रूप ले सकती है। इस क्षेत्र में पायी जाने वाली बकरियाँ अल्प आयु में वयस्क होकर दो वर्ष में कम से कम 3 बार बच्चों को जन्म देती हैं और एक वियान में 2-3 बच्चों को जन्म देती हैं। बकरियों से मांस, दूध, खाल एवं रोंआ के अतिरिक्त इसके मल-मूत्र से जमीन की उर्वरा शक्ति बढ़ती है। बकरियाँ प्रायः चारागाह पर निर्भर रहती हैं। यह झाड़ियाँ, जंगली घास तथा पेड़ के पत्तों को खाकर हमलोगों के लिए पौष्टिक पदार्थ जैसे मांस एवं दूध उत्पादित करती हैं।
बकरियों की विभिन्न उपयोगी नस्लें : संसार में बकरियों की कुल 102 प्रजातियाँ उपलब्ध है। जिसमें से 20 भारतवर्ष में है। अपने देश में पायी जाने वाली विभिन्न नस्लें मुख्य रूप से मांस उत्पादन हेतु उपयुक्त है। यहाँ की बकरियाँ पश्चिमी देशों में पायी जाने वाली बकरियों की तुलना में कम मांस एवं दूध उत्पादित करती है क्योंकि वैज्ञानिक विधि से इसके पैत्रिकी विकास, पोषण एवं बीमारियों से बचाव पर समुचित ध्यान नहीं दिया गया है। बकरियों का पैत्रिकी विकास प्राकृतिक चुनाव एवं पैत्रिकी पृथकता से ही संभव हो पाया है। पिछले 25-30 वर्षों में बकरी पालन के विभिन्न पहलुओं पर काफी लाभकारी अनुसंधान हुए हैं फिर भी राष्ट्रीय एवं क्षेत्रीय स्तर पर गहन शोध की आवश्यकता है। भारतीय कृषि अनुसंधान संस्थान, नई दिल्ली की ओर से भारत की विभिन्न जलवायु की उन्नत नस्लें जैसेः ब्लैक बंगला, बारबरी, जमनापारी, सिरोही, मारबारी, मालावारी, गंजम आदि के संरक्षण एवं विकास से संबंधित योजनाएँ चलायी जा रही है। इन कार्यक्रमों के विस्तार की आवश्यकता है ताकि विभिन्न जलवायु एवं परिवेश में पायी जाने वाली अन्य उपयोगी नस्लों की विशेषता एवं उत्पादकता का समुचित जानकारी हो सके। इन जानकारियों के आधार पर ही क्षेत्र विशेष के लिए बकरियों से होने वाली आय में वृद्धि हेतु योजनाएँ सुचारू रूप से चलायी जा सकती है।
भारत की उपयोगी नस्लें निम्नलिखित हैं :-
01. ब्लैक बंगाल 02. जमनापारी
03. बारबरी 04. बीटल
05. सिरोही 06. मारबारी
07. मालावारी 08. संगमनेरी
09. जाकराना 10. कश्मीरी
11. गंजम 12. कच्छी
13. चेगु 14. गद्दी
ब्लैक बंगालः इस जाति की बकरियाँ पश्चिम बंगाल, झारखंड, असोम, उत्तरी उड़ीसा एवं बंगाल में पायी जाती है। इसके शरीर पर काला, भूरा तथा सफेद रंग का छोटा रोंआ पाया जाता है। अधिकांश (करीब 80 प्रतिशत) बकरियों में काला रोंआ होता है। यह छोटे कद की होती है वयस्क नर का वजन करीब 18-20 किलो ग्राम होता है जबकि मादा का वजन 15-18 किलो ग्राम होता है। नर तथा मादा दोनों में 3-4 इंच का आगे की ओर सीधा निकला हुआ सींग पाया जाता है। इसका शरीर गठीला होने के साथ-साथ आगे से पीछे की ओर ज्यादा चौड़ा तथा बीच में अधिक मोटा होता है। इसका कान छोटा, खड़ा एवं आगे की ओर निकला रहता है।
इस नस्ल की प्रजनन क्षमता काफी अच्छी है। औसतन यह 2 वर्ष में 3 बार बच्चा देती है एवं एक वियान में 2-3 बच्चों को जन्म देती है। कुछ बकरियाँ एक वर्ष में दो बार बच्चे पैदा करती है तथा एक बार में 4-4 बच्चे देती है। इस नस्ल की मेमना 8-10 माह की उम्र में वयस्कता प्राप्त कर लेती है तथा औसतन 15-16 माह की उम्र में प्रथम बार बच्चे पैदा करती है। प्रजनन क्षमता काफी अच्छी होने के कारण इसकी आबादी में वृद्धि दर अन्य नस्लों की तुलना में अधिक है। इस जाति के नर बच्चा का मांस काफी स्वादिष्ट होता है तथा खाल भी उत्तम कोटि का होता है। इन्हीं कारणों से ब्लैक बंगाल नस्ल की बकरियाँ मांस उत्पादन हेतु बहुत उपयोगी है। परन्तु इस जाति की बकरियाँ अल्प मात्रा (15-20 किलो ग्राम/वियान) में दूध उत्पादित करती है जो इसके बच्चों के लिए अपर्याप्त है। इसके बच्चों का जन्म के समय औसत् वजन 1.0-1.2 किलो ग्राम ही होता है। शारीरिक वजन एवं दूध उत्पादन क्षमता कम होने के कारण इस नस्ल की बकरियों से बकरी पालकों को सीमित लाभ ही प्राप्त होता है।
जमुनापारीः जमुनापारी भारत में पायी जाने वाली अन्य नस्लों की तुलना में सबसे उँची तथा लम्बी होती है। यह उत्तर प्रदेश के इटावा जिला एवं गंगा, यमुना तथा चम्बल नदियों से घिरे क्षेत्र में पायी जाती है। एंग्लोनुवियन बकरियों के विकास में जमुनापारी नस्ल का विशेष योगदान रहा है।
इसके नाक काफी उभरे रहते हैं। जिसे ‘रोमन’ नाक कहते हैं। सींग छोटा एवं चौड़ा होता है। कान 10-12 इंच लम्बा चौड़ा मुड़ा हुआ तथा लटकता रहता है। इसके जाँघ में पीछे की ओर काफी लम्बे घने बाल रहते हैं। इसके शरीर पर सफेद एवं लाल रंग के लम्बे बाल पाये जाते हैं। इसका शरीर बेलनाकार होता है। वयस्क नर का औसत वजन 70-90 किलो ग्राम तथा मादा का वजन 50-60 किलो ग्राम होता है।
इसके बच्चों का जन्म समय औसत वजन 2.5-3.0 किलो ग्राम होता है। इस नस्ल की बकरियाँ अपने गृह क्षेत्र में औसतन 1.5 से 2.0 किलो ग्राम दूध प्रतिदिन देती है। इस नस्ल की बकरियाँ दूध तथा मांस उत्पादन हेतु उपयुक्त है। बकरियाँ सलाना बच्चों को जन्म देती है तथा एक बार में करीब 90 प्रतिशत एक ही बच्चा उत्पन्न करती है। इस जाति की बकरियाँ मुख्य रूप से झाड़ियाँ एवं वृक्ष के पत्तों पर निर्भर रहती है। जमुनापारी नस्ल के बकरों का प्रयोग अपने देश के विभिन्न जलवायु में पायी जाने वाली अन्य छोटे तथा मध्यम आकार की बकरियाँ के नस्ल सुधार हेतु किया गया। वैज्ञानिक अनुसंधान से यह पता चला कि जमनापारी सभी जलवायु के लिए उपयुक्त नही हैं।
बीटलः बीटल नस्ल की बकरियाँ मुख्य रूप से पंजाब प्रांत के गुरदासपुर जिला के बटाला अनुमंडल में पाया जाता है। पंजाब से लगे पाकिस्तान के क्षेत्रों में भी इस नस्ल की बकरियाँ उपलब्ध है। इसका शरीर भूरे रंग पर सफेद-सफेद धब्बा या काले रंग पर सफेद-सफेद धब्बा लिये होता है। यह देखने में जमनापारी बकरियाँ जैसी लगती है परन्तु ऊँचाई एवं वजन की तुलना में जमुनापारी से छोटी होती है। इसका कान लम्बा, चौड़ा तथा लटकता हुआ होता है। नाक उभरा रहता है। कान की लम्बाई एवं नाक का उभरापन जमुनापारी की तुलना में कम होता है। सींग बाहर एवं पीछे की ओर घुमा रहता है। वयस्क नर का वजन 55-65 किलो ग्राम तथा मादा का वजन 45-55 किलो ग्राम होता है। इसके वच्चों का जन्म के समय वजन 2.5-3.0 किलो ग्राम होता है। इसका शरीर गठीला होता है। जाँघ के पिछले भाग में कम घना बाल रहता है। इस नस्ल की बकरियाँ औसतन 1.25-2.0 किलो ग्राम दूध प्रतिदिन देती है। इस नस्ल की बकरियाँ सलाना बच्चे पैदा करती है एवं एक बार में करीब 60% बकरियाँ एक ही बच्चा देती है।
बीटल नस्ल के बकरों का प्रयोग अन्य छोटे तथा मध्यम आकार के बकरियों के नस्ल सुधार हेतु किया जाता है। बीटल प्रायः सभी जलवायु हेतु उपयुक्त पाया गया है।
बारबरीः बारबरी मुख्य रूप से मध्य एवं पश्चिमी अफ्रीका में पायी जाती है। इस नस्ल के नर तथा मादा को पादरियों के द्वारा भारत वर्ष में सर्वप्रथम लाया गया। अब यह उत्तर प्रदेश के आगरा, मथुरा एवं इससे लगे क्षेत्रों में काफी संख्या में उपलब्ध है।
यह छोटे कद की होती है परन्तु इसका शरीर काफी गठीला होता है। शरीर पर छोटे-छोटे बाल पाये जाते हैं। शरीर पर सफेद के साथ भूरा या काला धब्बा पाया जाता है। यह देखने में हिरण के जैसा लगती है। कान बहुत ही छोटा होता है। थन अच्छा विकसित होता है। वयस्क नर का औसत वजन 35-40 किलो ग्राम तथा मादा का वजन 25-30 किलो ग्राम होता है। यह घर में बांध कर गाय की तरह रखी जा सकती है। इसकी प्रजनन क्षमता भी काफी विकसित है। 2 वर्ष में तीन बार बच्चों को जन्म देती है तथा एक वियान में औसतन 1.5 बच्चों को जन्म देती है। इसका बच्चा करीब 8-10 माह की उम्र में वयस्क होता है। इस नस्ल की बकरियाँ मांस तथा दूध उत्पादन हेतु उपयुक्त है। बकरियाँ औसतन 1.0 किलो ग्राम दूध प्रतिदिन देती है।
सिरोहीः सिरोही नस्ल की बकरियाँ मुख्य रूप से राजस्थान के सिरोही जिला में पायी जाती है। यह गुजरात एवं राजस्थान के सीमावर्ती क्षेत्रों में भी उपलब्ध है। इस नस्ल की बकरियाँ दूध उत्पादन हेतु पाली जाती है लेकिन मांस उत्पादन के लिए भी यह उपयुक्त है। इसका शरीर गठीला एवं रंग सफेद, भूरा या सफेद एवं भूरा का मिश्रण लिये होता है। इसका नाक छोटा परन्तु उभरा रहता है। कान लम्बा होता है। पूंछ मुड़ा हुआ एवं पूंछ का बाल मोटा तथा खड़ा होता है। इसके शरीर का बाल मोटा एवं छोटा होता है। यह सलाना एक वियान में औसतन 1.5 बच्चे उत्पन्न करती है। इस नस्ल की बकरियों को बिना चराये भी पाला जा सकता है।
झारखंड प्रांत की जलवायु में उपरोक्त वर्णित नस्लों का पालन किया जा सकता है या यहाँ पायी जाने वाली बकरियों के नस्ल सुधार हेतु बीटल, बारबरी, सिरोही एवं जमनापारी के बकरे व्यवहार में लाये जा सकते हैं।
एंग्लोनुवियन - यह प्रायः यूरोप के विभिन्न देशों में पायी जाती है। यह मांस तथा दूध दोनों के लिए उपयुक्त है। इसकी दूध उत्पादन क्षमता 2-3 किलो ग्राम प्रतिदिन है।
सानन - यह स्विटजरलैंड की बकरी है। इसकी दूध उत्पादन क्षमता अन्य सभी नस्लों से अधिक है। यह औसतन 3-4 किलो ग्राम दूध प्रतिदिन अपने गृह क्षेत्रों में देती है।
टोगेनवर्ग - टोगेनवर्ग भी स्विटजरलैंड की बकरी है। इसके नर तथा मादा में सींग नहीं होता है। यह औसतन 3 किलो ग्राम दूध प्रतिदिन देती है।
किन्हीं दो जातियों के बकरा तथा बकरी के संयोग से उत्पन्न बकरी को संकर बकरी कहते हैं। झारखंड में राज्य के पशुपालन विभाग तथा अन्य संस्थाओं द्वारा बकरी के नस्ल सुधार हेतु किसानों के बीच काफी संख्या में जमुनापारी बकरों का वितरण किया गया जिसका वांछित लाभ नहीं हो पाया। इसका मुख्य कारण जमुनापारी नस्ल के विषय में समुचित ज्ञान का अभाव था।
बिरसा कृषि विश्वविद्यालय के अन्तर्गत राँची पशुचिकित्सा महाविद्यालय के वैज्ञानिकों द्वारा इस क्षेत्र में पायी जाने वाली ब्लैक बंगाल बकरी का प्रजनन जमुनापारी तथा बीटल बकरों से कराकर काफी संख्या में संकर नस्ल के बकरी, प्रक्षेत्र तथा बकरी पालकों के यहाँ उत्पन्न किया गया। बकरी के विभिन्न आर्थिक पहलुओं पर गहन अध्ययन से पता चला कि मांस तथा दूध उत्पादन में वृद्धि के लिए बीटल नस्ल उपयुक्त है। अतः ब्लैक बंगाल बकरी का प्रजनन बीटल बकरा से कराकर इस क्षेत्र के लिए उपयुक्त संकर नस्ल की बकरी का उत्पादन किया जा सकता है। यह संकर नस्ल की बकरी, बिहार की (झारखंड के अतिरिक्त) के लिए भी उपयुक्त है।
बीटल नस्ल के संयोग से उत्पादित संकर नस्ल के नर का वजन छः माह की उम्र में औसतन 12-15 किलो ग्राम हो जाता है। जबकि देशी (ब्लैक बंगाल) के नर का वजन केवल 7-8 किलो ग्राम रहता है। इस प्रकार बकरी पालन से होने वाली आय में डेढ़ से दोगुणी वृद्धि संभव है। संकर बकरियों के दूध उत्पादन में देशी की तुलना में करीब तिगुनी वृद्धि होती है। राँची पशुचिकत्सा महाविद्यालय के आस-पास के गाँवों में करीब 90 प्रतिशत बकरियाँ संकर नस्ल की उपलब्ध है।
बकरी प्रजनन - इस क्षेत्र में पायी जानेवाली ब्लैक बंगाल नस्ल के मादा बच्चे करीब 8-10 माह की उम्र में वयस्क हो जाते हैं। अगर शारीरिक वजन ठीक हो तो मादा मेमना (पाठी) को 8-10 माह की उम्र में पाल दिलाना चाहिए अन्यथा 12 महीने की उम्र में पाठी में ऋतुचक्र एवं ऋतुकाल छोटा होता है। वैसे बकरी में ऋतुचक्र करीब 18-20 दिनों का होता है एवं ऋतुकाल 36 घंटों का। बकरियाँ सालों भर गर्म होती है लेकिन अधिकांश बकरियाँ मध्य सितम्बर से मध्य अक्तूबर तथा मध्य मई से मध्य जून के बीच गर्म होती है। अन्य समय में कम बकरियाँ गर्म होती है। ऋतुकाल शुरू होने के 10-12 तथा 24-26 घंटों के बीच 2 बार पाल दिलाने से गर्भ ठहरने की संभावना 90 प्रतिशत से अधिक रहती है। इसे आप इस प्रकार समझ सकते है कि अगर बकरी या पाठी सुबह में गर्म हुई हो तब उसे उसी दीन शाम में एवं दूसरे दिन सुबह में पाल दिलाएं। अगर शाम को गर्म हुई हो तो दूसरे दिन सुबह में पाल दिलावें।
बकरी पालकों को बकरी के ऋतुकाल (गर्म होने) के लक्षण के विषय में जानकारी रखना चाहिए। बकरी के गर्म होने के लक्षण निम्नलिखित हैं : -
- विशेष प्रकार की आवाज निकालना।
- लगातार पूंछ हिलाना।
- चरने के समय इधर-उधर भागना।
- नर के नजदीक जाकर पूंछ हिलाना तथा विशेष प्रकार का आवाज निकालना।
- घबरायी हुई सी रहना।
- दूध उत्पादन में कमी
- भगोष्ठ में सूजन और योनि द्वार का लाल होना
- योनि से साफ पतला लेसेदार द्रव्य निकलना तथा नर का मादा के उपर चढ़ना या मादा का नर के उपर चढ़ना।
उपरोक्त लक्षणों को पहचानकर बकरी पालक समझ सकते है कि उनकी बकरी गर्म हुई है अथवा नहीं। इन लक्षणों को जानने पर ही समय से गर्म बकरी को पाल दिलाया जा सकता है। बच्चा पैदा करने के 30-31 दिनों के बाद ही गर्म होने पर बकरी को पाल दिलावें।
सामान्यतया 30-40 बकरियों के लिए एक बकरा काफी है। एक बकरा से एक दिन में केवल एक ही बकरी को पाल दिलाना चाहिए एवं एक सप्ताह में अधिक से अधिक पांच बकरियों को। इस बीच बकरों को अधिक पौष्टिक भोजन देना जरूरी है नहीं तो बकरा कमजोर हो जायेगा।
ब्लैक बंगाल बकरी का प्रजनन बीटल या सिरोही बकरा तथा संकर पाठी या बकरी का प्रजनन संकर बकरा से ही करावें। एक बात ध्यान देने योग्य है कि नर और मादा के बीच बाप-बेटी, बेटा-माँ एवं भाई-बहन का संबंध न हो। अगर दो गाँवों (‘अ’ और ‘ब’) में बीटल या विराही बकरा उपलब्ध कराया गया है तथा इससे संकर बकरी-बकरा का उत्पादन हुआ है तब 8-10 माह के बाद संकर पाठा-पाठी प्रजनन योग्य हो जायेगा। अगर इन दोनों गाँवों के बकरों तथा प्रजनन हेतु संकर पाठा का आपस में अदला-बदली नहीं किया जाय तब भाई-बहन, बाप-बेटी, बेटा-माँ के बीच प्रजनन होगा। अतः बकरा उपलब्ध कराने के 14-16 माह के बीच ‘अ’ गाँव के बकरा को ‘ब’ गाँव में तथा ‘ब’ गाँव के बकरा को ‘अ’ गाँव में अदला-बदला कर देना चाहिए। इसी प्रकार प्रजनन योग्य संकर पाठी का भी अदला-बदला करना चाहिए। संकर पाठी का प्रजनन संकर पाठा से ही कराना लाभप्रद है।
गर्भवती बकरियों को गर्भावस्था के अंतिम डेढ़ महीने में अधिक सुपाच्य एवं पौष्टिक भोजन की आवश्यकता होती है क्योंकि इसके पेट में पल रहे भ्रूण का विकास काफी तेजी से होने लगता है। इस समय गर्भवती बकरी के पोषण एवं रख-रखाव पर ध्यान देने से स्वस्थ्य बच्चा पैदा होगा एवं बकरी अधिक मात्रा में दूध देगी जिससे इनके बच्चों में शारीरिक विकास अच्छा होगी।
बकरियों में गर्भावस्था औसतन 142-148 दिनों का होता है। बच्चा देने के 2-3 दिन पहले से बकरी को साफा-सुथरा एवं अन्य बकरी से अलग रखें।
आवास - वातावरण के अनुसार बकरियों के लिए आवास की व्यवस्था करनी चाहिए। यहाँ बकरियों को गर्मी, सर्दी, वर्षा तथा जंगली जानवरों से बचाने योग्य आवास की जरूरत है। आवास के लिए सस्ती से सस्ती सामग्री का व्यवहार करना चाहिए ताकि आवास लागत कम रहे। प्रत्येक वयस्क बकरी के परिवार के लिए 10-12 वर्गफीट जमीन की आवश्यकता होती है। प्रत्येक 10 बकरियों के परिवार के लिये 100-120 वर्ग फीट यानि 10'x12' जमीन की आवश्यकता होगी। बकरा-बकरी को अलग-अलग रखना चाहिए। बकरी के लिए घर के किनारे-किनारे डेढ़ फीट ऊँचा तथा ढ़ाई से तीन फीट चौड़ा मचान बना देना चाहिए। मचान बनाने में यह ध्यान रखना चाहिए कि दो लकड़ी या बांस के टुकड़ों के बीच इतना कम जगह हो कि बकरी या बकरी के बच्चों का पांव उसमें न फंस सके।
अगर सम्भव हो तो घर की दीवाल से सटाकर बकरी गृह का निर्माण करें या किसी चहारदीवारी से। इस प्रकार लागत कम आयेगा। पीछे वाले दीवाल की ऊँचाई 8 फीट तथा आगे वाले का 6 फीट रखें। घर हवादार एवं साफ-सुथरा रहना चाहिए। जमीन मिट्टी एवं बालू से बना होना चाहिए। घर का सतह (जमीन) ढ़ालुआं होना चाहिए ताकि सफाई आसान हो। बकरियों खासकर बच्चों को ठंढ से बचाने का प्रबंध आवास में होना जरूरी है।
पोषण - बकरियाँ चरने के अतिरिक्त हरे पेड़ की पत्तियाँ, हरी घास, दाल चुन्नी, चोकर आदि पसन्द करती है। बकरियों को रोज 6-8 घंटा चराना जरूरी है। यदि बकरी को घर में बांध कर रखना पड़े तब इसे कम से कम दो बार भोजन दें। बकरी हरा चारा (लूसर्न, बरसीम, जई, मकई, नेपियर आदि) और पत्ता (बबूल, बेर, बकाइन, पीपल, बरगद, गुलर कटहल आदि) भी खाती है। एक वयस्क बकरी को औसतन एक किलो ग्राम घास या पत्ता तथा 100-250 ग्राम दाना का मिश्रण (मकई दरों, चोकर, खल्ली, नमक मिलाकर) दिया जा सकता है। उम्र तथा वजन के अनुसार भोजन की मात्रा को बढ़ाया या घटाया जा सकता है। गाय-भैंस की तरह भी कृट्टी/भूसा में दाना का मिश्रण पानी में मिलाकर बकरी को दे सकते है। आदत लग जाने पर बकरियाँ भी गाय-भैंस की तरह खाना खा सकती है। बकरा, दूध देने वाली बकरी एवं गर्भवती बकरी के पोषण पर ज्यादा ध्यान देने की जरूरत होती है।
बकरियों के लिए उपयोगी चारा
झाड़ियाँ : बेर, झरबेर
पेड़ की पत्तियाँ : नीम, कटहल, पीपल, बरगद, जामुन, आम, बकेन, गुल्लड, शीशम
चारा वृक्ष की पत्तियाँ : सू-बबूल, सेसबेनिया
सदाबहार घास : दूब, दीनानाथ, गिनी घास
हरा घास : लोबिया, बरसीम, लूसर्न आदि।
झाड़ियाँ : बेर, झरबेर
पेड़ की पत्तियाँ : नीम, कटहल, पीपल, बरगद, जामुन, आम, बकेन, गुल्लड, शीशम
चारा वृक्ष की पत्तियाँ : सू-बबूल, सेसबेनिया
सदाबहार घास : दूब, दीनानाथ, गिनी घास
हरा घास : लोबिया, बरसीम, लूसर्न आदि।
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